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________________ बौद्ध विनय की दृष्टि में .. २९ घटक और संस्थान के बीच की सम्बन्धात्मक रेखा तात्कालिक प्रयोजन निष्पत्ति पर निर्भर करती है। यह सिद्धान्त समाज और व्यक्ति पर प्रयुक्त कर देखें तो तात्त्विक दृष्टि से उनके सम्बन्धों को निश्चित करने में कुछ आयाम मिल सकते हैं । भिक्षुसंघ की जब अभिवृद्धि हुई तो काल के क्रम से भिक्षु और भिक्षु-संघ, भिक्षु-संघ और साधारण समाज के पारस्परिक सम्बन्ध, भिक्षु-संघ और उसके सदस्यों के जीवन में अनेक समस्याएँ उत्पन्न हुई । उन समस्याओं के समाधान के रूप में विनय नियमों का विकास हुआ। विनय के नियमों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि ये नियम स्थायी नियम नहीं हैं। वे समकालिक जीवन एवं समाज की अन्योन्याश्रयी अपेक्षा से बनते गये हैं। इसीलिए विशेष परिस्थितियों में दी गयी निषेधात्मक अनुज्ञाएं अन्य परिस्थितियों में ढीली भी कर दी गयीं। संघ के लोकपाल धर्म जहाँ तक भिक्षु-संघ और समाज के सम्बन्धों का प्रश्न है, यह बहुत कुछ भिक्षओं के सामाजिक जीवन पर निर्भर करता है। भिक्षु और भिक्षुसंघ के जीवन सम्बन्धी व्यवहार की ओर नजर डालने पर यह प्रतीत होता है कि भिक्षु-संघ एक धार्मिक सङ्गठन होते हुए भी साधारण समाज के बहुत बड़े क्षेत्र को प्रभावित करता है। जैसे संघ सम्बन्धित समाज के ज्ञान, आध्यात्मिक जीवन और उससे सम्बन्धित सभी क्रिया-कलापों का नेतृत्व करता है । दान, पूजा, जन्म-मरण आदि संस्कारों तथा नैतिक शिक्षा आदि बहुत सी आवश्यकताओं की पूर्ति में संघ का विशेष योगदान होता है। दूसरी ओर संघ या उसके सदस्य भिक्षुओं का भोजन, वस्त्र आदि जीविका, उनकी जीवन सम्बन्धी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति समाज या सामाजिक संगठन, जैसे परिवार, राज्य आदि पर पूर्णतया निर्भर रहती है। यही कारण है कि भिक्षुसंघ या संघ के सदस्य भिक्षुओं को साधारण समाज के तात्कालिक उन सभी नैतिक नियमों एवं रीति-रिवाजों का पालन करना पड़ता है, जो एक आदर्श समाज के सदस्य व्यक्ति को करना पड़ता है। विनय के अधिकांश नियम सामाजिक अपवादों को दृष्टि में रखकर ही बनाये गये हैं-जैसे एक भिक्षु को एक स्त्री के साथ एक कोस या एक फलांग की दूरी तक साथ जाना विनय-विरुद्ध माना जाता है। यहाँ पर कह देना असङ्गत नहीं होगा कि बुद्ध ने लोकपाल धर्म दो ही कहे हैं। वे हैं-'ही और अपत्राप्य' । 'द्वौ धौ लोकं पालयतः, ह्रीश्चापत्राप्यं चेत्यादि'(प्रसन्नपदा प्रथमपरिच्छेद, पृ० १३ ।) परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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