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________________ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ संघ स्वयं साध्य नहीं है, वह तो साधन है। समानधर्मी लोग अपने सुप्रतिष्ठित जीवनक्रम एवं साधना के लिए संघ बनाते हैं और उस संघ के द्वारा अपने जीवन का विकास करते हैं। यदि संघ की व्यवस्था घटक व्यक्तियों की आपेक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम न हो तो उस व्यवस्था में देश, काल के अनुसार परिवर्तन करना पड़ता है। संघ में जब तक उक्त क्षमता वर्तमान रहती है, व्यक्ति संघ की अविपरीत दिशा में ही कार्य सम्पन्न करते हैं। सङ्क के विधान से व्यक्ति कुछ विशेषताओं का भी अनुभव करता है, जैसेएक व्यक्ति समस्त सांसारिक प्रपञ्च से विमुख होकर कोई साधना अपनाए, और उस साधना से अर्हत् का पद प्राप्त कर ले तो भी उसे सङ्ग के लिए कुछ कार्य करना ही होता है । यद्यपि उस कार्य के करने से उसका कोई लाभ नहीं है। सङ्घ की व्यवस्था सम्बन्धी चेतना उसे कार्य के लिए विवश करती है। एक उदाहरण लें। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद जब महाकाश्यप ने सङ्घनायक के रूप में संघ की बैठक बुलायी, तो उसमें उपस्थित अनेक अर्हत् जो परिनिर्वृत्त होना चाहते थे, उन्हें वैसा करने से संगीति के सम्पन्न होने तक रोक दिया। इस उदाहरण से स्पष्ट है कि संघ एक व्यक्ति को किस तरह नियन्त्रण में रखता है। यहाँ प्रश्न सङ्घ और व्यक्ति का नहीं है, बल्कि व्यवस्था (सङ्गठन) का है। व्यवस्था में जब सहमति होती है तो उसके अन्तर्गत नियमों और आदेशों के परिपालन में व्यक्ति विवश होता है। आधुनिक समाजशास्त्री जिस तरह समाज को एक व्यवस्था के रूप में देखते हैं । उसमें संघ की व्यवस्था की कुछ तुलना हो सकती है। ___तात्त्विक दृष्टि से विचार करें तो 'घट' जैसी एक स्थूल वस्तु जब चक्षुविज्ञान के सामने उपस्थित होती है तो उसका रूप "संस्थानात्मक' होता है। उसके स्थूल आकार की वैसी सत्ता नहीं है, जैसी उसके घटक ‘परमाणु' की है। परमाणु की स्वतन्त्र सत्ता है, वह द्रव्यसत् है । जब संस्थान की सत्ता का विखण्डन होने लगता है, तो घट का अस्तित्व ही नहीं रहता। घट की सत्ता विघटित होने पर भी उसके अवयव अथवा घटक परमाणुओं की सत्ता समाप्त नहीं होती। इस प्रकार प्रत्येक संस्थानात्मक वस्तु की सत्ता घटक अवयवों पर निर्भर है। पर घटक अवयवों की सत्ता संस्थान पर उसी अवस्था तक आश्रित है, जब तक उसके अस्तित्व का विशेष प्रयोजन रहता है । प्रयोजन की समाप्ति के साथ-साथ संस्थान का विघटन हो जाता है। परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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