________________
बौद्धदृष्टि में व्यक्ति, लोक तथा सम्बन्ध स्व-पर-समता को पुष्ट आधार मिल जाता है, जिसको पूर्ति स्व का पर के लिए विसर्जन में होती है, जिसे स्व परात्मपरिवर्तन कहा जाता है। इस प्रकार व्यक्ति की स्वतन्त्रता का विकास परार्थ के लिए अपने को विजित करने में तथा एक उच्च प्रकार की पराधीनता स्वीकार करने में है।
सम्पूर्ण बौद्धचिन्तन में प्रज्ञा और करुणा ही वे मूलभूत तत्त्व हैं, जिनके आधार पर एक ओर व्यक्ति का लोक से सम्बन्ध विकसित होता है तथा दूसरी ओर उसी से नीति और धर्म के औचित्य का भी निर्धारण होता है। जब तक स्थिति (दुःख और उसके निवारण) का यथाभूत ज्ञान नहीं होगा, तब तक व्यक्ति या लोक में शील की प्रतिष्ठा तथा व्यक्ति-चित्त एवं लोकचित्त की विशुद्धि सम्भव नहीं होगी। व्यक्ति में करुणा का प्रारम्भ अविहिंसा या अद्वेष के रूप में होता है, जिसका स्वरूप रहता है, दूसरों का दुःख देख कर हृदय का खिन्न हो जाना तथा दुःख के निवारण की इच्छा उत्पन्न होना। करुणा का यह व्यक्तिगत क्षेत्र है। प्रज्ञा के द्वारा जब यह यथार्थता प्रकट होती है कि संसार के दुःखों का कारण केवल व्यक्ति से सम्बद्ध अज्ञान मात्र नहीं है, अतः उसे ही हटाना पर्याप्त नहीं है, अपितु उससे भिन्न अन्य सम्पूर्ण लोक के सम्बन्ध में जो अविद्या और तृष्णा का आवरण है, उसका अपनयन भी नितान्त आवश्यक है। प्रज्ञा के इस व्यापक प्रकाश में करुणा अपनी व्यक्तिगत सीमा से उठकर विशाल आयाम ग्रहण कर लेती है। उसके फलस्वरूप विभिन्न प्रकारों से उसकी क्रियाशीलता तीव्र हो जाती है। इस प्रकार करुणा का प्रयाण महाकरुणा की ओर हो जाता है। महाप्रज्ञा के प्रकाश-मण्डल में महाकरुणा लोकाभिमुख एवं लोकपरायण हो जाती है। जिस ओर यह यात्रा करती है, उसी ओर सभी श्रेष्ठ धर्म (गुण) अनुगम करने लगते हैं। इस प्रकार जीवन को एक यह महान् लक्ष्य प्राप्त होता है-संसार के दुःखों के निवारण में अपने जन्म-जन्मान्तर को लगा देना।
विकास की उपर्युक्त भूमिका में एक मूलभूत तथ्य यह प्रकट होता है कि संसार और निर्वाण के बीच जो महान् अन्तर या विरोध समझा जाता है, वह मनुष्य का निरा अज्ञान है। वास्तव में दोनों के बीच किसी प्रकार का तात्त्विक भेद नहीं है। इस स्थिति में संसार की हीनता और हेयता की परम्परागत मान्यता में भी आमूल-चूल परिवर्तन होता है। इस परिवर्तन के साथ सभी महायान दार्शनिकों ने एक वस्तु के दो पृष्ठों की भाँति व्यवहार और परमार्थ की महत्वपूर्ण व्याख्या की। निर्वाण के लिए व्यवहार अनिवार्य उपाय है, वह सर्वथा हेय नहीं है। इसके लिए महायान के आचार्यों ने कहा है कि जगत् के दुःखों का निवारण लक्ष्य है। उस उद्देश्य
परिसंवाद-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org