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________________ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं बनाता, किन्तु ऐसा न कर उसने लोक को आराध्य बनाया है। वह जिन क्षेत्र और सत्त्व-क्षेत्र (लोक) के माहात्म्य को समान मानता है । ऐसा निर्णय यह इसलिए ले पाता है कि ऐसे व्यक्ति के पास करुणा के साथ प्रज्ञा है। प्रज्ञा के कारण उसे वास्तविकता का परिज्ञान है, वह जगत् के दुःखों, उनके कारणों और उनके निवारण को यथाभूत जानता है । दुःखी जनता को उसके दुःखों से मुक्त करना उसका उद्देश्य है, किन्तु वह यह भी जानता है कि दुःखों के कार्यकारण का प्रवाह विस्तृत एवं व्यापक निमित्तों से जुड़ा हुआ है, उन्हें आलम्बन बना कर ही दुःखों को समाप्त किया जा सकता है। दुःखों के स्वामी या अधिकारी कुछ लोग ही नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि उससे कुछ ही लोग प्रतिबद्ध हों, बल्कि दुःख सामान्य है, इसलिए अपने और दूसरों का विभाग न करके जगत् में विस्तृत दुःख-प्रवाह या दुःख की व्यवस्था को समाप्त करना होगा। सर्जन-शीलता का यह व्यापक आयाम है। व्यापकता का कारण है-प्रज्ञा और करुणा का सहवर्ती होना । करुणा व्यापक दुःख-प्रवाह का स्पर्श करती है और प्रज्ञा मिथ्यादृष्टियों का प्रहाण कर वास्तविकता का ज्ञान कराती है। प्रज्ञा के कारण व्यक्ति संसार की आसक्तियों में नहीं फंसता और करुणा के कारण संसार से विरक्त नहीं होता। महायान के आदर्श के अनुसार इस महान् कार्य के सम्पादनार्थ संसार और निर्वाण दोनों में आदर्श व्यक्ति को प्रतिष्ठित नहीं होना चाहिए। उसे मध्यस्थ एवं तटस्थ होना चाहिए। समता एवं परिवर्तन उपर्युक्त महान् संकल्प के साथ व्यक्ति-चित्त में परात्म-समता और परात्मपरिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इसकी पृष्ठभूमि में प्रतीत्यसमुत्पाद का एक नया जीवन-दर्शन वर्तमान है, जिसे प्रज्ञा या प्रज्ञापारमिता (प्रज्ञा की पूर्णता) कहते हैं। चिन्तन से यह तथ्य स्पष्ट होने लगता है कि व्यापक विषमता के पीछे कार्य-कारण नियम की गलत अवधारणायें भी काम करती हैं और उसी के आधार पर स्व-पर आधारित सम्बन्ध एवं मान्यतायें खड़ी कर ली गई हैं। जब कि सत्य यह है कि इनके मूल में स्व-पर का निर्धारण तात्त्विक नहीं है। क्योंकि कारणता के नियम स्वयं में ही उपपन्न नहीं हो पाते । फलतः वस्तु या व्यक्ति का स्वभाव (स्वत्व) सिद्ध नहीं हो पाता। प्रज्ञामूलक इस दार्शनिक परिस्थिति में दुःख की व्याख्या का आधार केवल व्यक्तियों तक सीमित न रहकर, परम्परा (प्रवाह) या व्यवस्था से सम्बद्ध हो जाती है । उस स्थिति में करुणा सत्त्वालम्बना (व्यक्त्याश्रित) नहीं रह जाती, प्रत्युत धर्मालम्बना (नियमाश्रित या प्रवाहाश्रित) हो जाती है। आगे चलकर यह अनालम्बना भी होती है। इस स्थिति में करुणा का आयाम अतिविस्तृत एवं उदार हो जाता है। इस प्रकार परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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