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________________ ३२२ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ कि यह समष्टि के हित से व्यष्टि अथवा छोटे समूहों के सुख की उपेक्षा कर सकता है। इसके अतिरिक्त सुख जैसी आन्तरिक वस्तु का ठीक-ठीक जोड़ घटाव करना भी कठिन है। इसमें सामाजिक उद्देश्यों का निर्णय जनतान्त्रिक तरीके से नहीं होता, बल्कि शासनाधिकारियों के द्वारा होता है जो इस बात का दावा करते हैं कि पूर्व निर्दिष्ट सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति की दिशा में जनता की प्रवृत्तियों को किस प्रकार प्रेरित किया जाए, यह वे ही जानते हैं। यही कारण है कि सभी देशों की अफसरशाही इसी सिद्धान्त को पसन्द करती है। तीसरा सिद्धान्त व्यक्ति के सम्मान का सिद्धान्त है। यह सिद्धान्त इस दार्शनिक आधार पर प्रतिष्ठित है कि मानव व्यक्ति अपने आप में एक साध्य है साधन मात्र नहीं । प्रत्येक मानव आत्मा स्वयं ही अपना अन्तिम मूल्य है। इस आध्यात्मिक सिद्धान्त से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतएव जीवन मात्र के प्रति श्रद्धा, सभी व्यक्तियों के प्रति सम्मान की भावना एक आध्यात्मिक वृत्ति है । यह सिद्धान्त आर्थिक एवं राजनीतिक सब प्रकार की समता का पोपक है । जन्म, जाति, लिंग, धन यहाँ तक की योग्यता भी यदि व्यक्ति और व्यक्ति के बीच किसी भेदभाव की सृष्टि करते हैं तो यह सभी सामाजिक न्याय के आधार के रूप में त्याज्य हैं, क्योंकि इनके द्वारा निर्मित भेदों से व्यक्ति का व्यक्ति के रूप में अपमान होता है । व्यक्ति व्यक्ति नहीं रहता, बल्कि इन विशिष्टताओं से विशिष्ट व्यक्ति ही रह जाता है। जैसे वर्ण व्यवस्था में व्यक्ति मात्र मानव व्यक्ति के रूप में नहीं, बल्कि अपने वर्ण से ही पहचाना जाता है । इस सिद्धान्त के अनुसार समाज का कर्तव्य है कि प्रत्येक व्यक्ति के प्रेय और श्रेय की प्राप्ति के लिये समान व्यवस्था करे। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की सत्ता और मूल्यवत्ता समान है। इस सिद्धान्त ने अनेक सामाजिक भेदों के उन्मूलन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। यह व्यक्तियों को ऐसे अविच्छेद्य मौलिक अधिकारों से सम्पन्न करता है जो न सामाजिक अनुबन्धों के द्वारा स्थापित किये गये हैं और न सामाजिक अनुबन्धों के द्वारा छीने जा सकते हैं। वे इस बात पर भी निर्भर नहीं करते कि वे व्यक्तिगत सुखों के समुच्चय के रूप में समष्टिगत सुखों की वृद्धि करते हैं या नहीं। अब जहाँ तक दार्शनिक आधारों की बात है, इन आदर्शों की सिद्धि में वे ही दर्शन सहायक हो सकते हैं जो व्यक्तियों की अनेकता, स्वतन्त्रता, समता जो भ्रातभाव के आधार हैं और परस्पराश्रय में निष्ठा रखते हैं। सांख्य-दर्शन में यह बात हमें बड़ी सरलता से दिखाई देती है। क्योंकि सांख्य दृष्टि से पुरुष का बहत्व सिद्ध है और वह सभी पुरुष एक दूसरे से स्वतन्त्र और अपनी विशेषताओं में एक दुसरे के समान हैं, परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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