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________________ मानव-समता ३२१ नहीं था। ऐसी स्थिति में आर्थिक साधन तो प्रायः सभी के समान ही थे। उनके विकास की आवश्यकता थी जिसके लिये प्रयास का हो मौलिक महत्त्व था । आर्थिक सीमा किसी के प्रयास को कुण्ठित नहीं करती थी। इसलिये यह आसानी से समझा जा सकता है कि राजनीतिक स्वतन्त्रता और समता से ही अमेरिका के लोग क्यों सन्तुष्ट रहे । आर्थिक समता की बात तो तब महत्त्व प्राप्त करती है जब धीरे-धीरे विकास के क्रम में आर्थिक विषमता इतनी बढ़ जाती है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने वर्ग की सीमाओं में बँध जाना पड़ता है, और वर्गभेद की रेखायें इतनी गहरी हो जाती हैं कि सामाजिक गतिशीलता असम्भव हो जाती है। सम्पन्न और विपन्न वर्ग सर्वथा पथक हो जाते हैं और सम्पन्न वर्ग अपनी अपार आर्थिक शक्तियों द्वारा विपन्नों का शोषण करने लगता है, तब समाज में समता की प्रेरणा फिर से उदित होती है, जैसा कि अब अमेरिका में भी आरम्भ हुआ है जिसकी पूँजीवादी परम्परायें अपनी व्यवस्था की सफलता के द्वारा अमेरिकन जनता के स्वभाव का अंग बन गई है। अन्य देशों में तो समता की बात समाज की दृष्टि से कभी ओझल नहीं हुई, क्योंकि उनका इतिहास आर्थिक समता से यदि कभी आरस्भ हुआ है तो वह सुदूर भूतकाल में हुआ है, और प्राचीन इतिहास के विद्वान् इस बात के साक्षी हैं कि आरम्भ में सभी जगह सम समाज था, किन्तु धीरे-धीरे आर्थिक वैषम्य की सृष्टि और वर्ग-व्यवस्था का विकास हुआ, तभी एक बार फिर समता की पुनर्स्थापना के नारे लगने आरम्भ हुए । इस दृष्टि से यह सिद्ध होता है कि मूलतः स्वतन्त्रता और समता को मानव समाज से अलग नहीं किया जा सकता । विकास के क्रम में उत्पन्न होने वाली विषमता को कुछ हद तक आवश्यक देखते हुए अब विद्वानों ने प्रतिफल को समता के स्थान पर अवसर को समता का सिद्धान्त प्रसारित किया है। दूसरा सिद्धान्त उपयोगितावादियों का है जो बहुजन सुखाय के आदर्श में विश्वास करते हैं और सामाजिक न्याय के अन्तर्गत उन्हीं व्यवस्थाओं को मानते हैं जिनसे समाज के अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम लाभ सम्पन्न हो। इस सिद्धान्त का और बहुसंख्यक जनता के लिए हितकर नीतियों पर होता है। यह जन सामान्य की मानसिक और नैतिक प्रेरणाओं के मूल पर दष्टि रखता है और सुख की प्राप्ति को ही मानव जीवन का उद्देश्य मानता है । इसके अनुसार सामाजिक न्याय की स्थापना तभी होती है जब समाज में सुख की मात्रा अधिकतम होती है। प्रत्येक व्यक्ति के के सुख को जोड़ने से सामूहिक सुख का निर्माण होता है। आर्थिक शब्दों में इसका अर्थ यह होता है कि जिन पदार्थों और सेवाओं का मनुष्य अपने सुख के लिये उपयोग करता है उनकी मात्रा अधिकतम बढ़ाई जाए। उपयोगितावाद की कमजोरी यह है परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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