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________________ २८४ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ पायेंगे। इस स्थिति में आत्मतत्त्व का यथार्थ स्वरूप परिचय न होने से दर्शनों का लक्ष्य सिद्ध न हो सकेगा। दर्शनों में प्रतिपादित तत्त्वगत सम्पूर्ण समताओं और विषमताओं का इस लघु निबन्ध में उपपादन करना विस्तार में जाना होगा। __इसके अतिरिक्त भी अनेक प्रकार की समता या विषमता सामाजिक, आर्थिक, व्यावहारिक आदि की हैं, जिनका निरूपण दर्शनेतर भारतीय शास्त्रों में किया गया है। किन्तु इस तरफ भी दार्शनिक स्वर की व्याख्या करना मेरे विचार से क्लिष्ट कल्पना ही होगी। चाहे दर्शनशास्त्र हों या अन्य भारतीय शास्त्र हों, व सभी विषमता के भीतर समता का स्वर देखते और कहते हैं। यही परमार्थ है। जहाँ समता में विषमता देखना संसार और बन्धन है, वहाँ विषमता में समता की दृष्टि मुक्ति है। यह दृष्टि जिसे जिस मात्रा में प्राप्त हो, वह उसी मात्रा में बद्ध और मुक्त है । परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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