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________________ २७२ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ इतनी दौड़भाग का प्रयोजन सिर्फ इस बात को रेखांकित करता है कि तंत्रों में इस बात में प्रभूत आधार मिलते हैं कि एक नए समतावादी दर्शन की ठोस सम्भावनाएँ हैं। परमार्थ और व्यवहार के दो स्तरों की यहाँ पर भी प्रतिष्ठा की गई है। पर ऐसा लगता है कि परमार्थ और व्यवहार में यहाँ समन्वय का प्रयास किया गया है, साफूर्य नहीं। इस बात की पुष्टि इससे और भी होती है कि यहाँ व्यवहार के स्तर पर कम से कम सिद्धान्त और व्यवहार का भेद नहीं मिलता। हमारा लक्ष्य तन्त्रों का औचित्य सिद्ध करना नहीं है परन्तु छिपी हुई सम्भावनाओं को उजागर करना है । डॉ० हर्षनारायण ने पाँच प्रकार की जो अर्हताएँ रखी हैं। वे सभी किसी न किसी रूप में तन्त्रों में प्राप्त होती हैं। हम संक्षेप में उनका पुनराकल्पन करें (१) तन्त्र पूर्णतावादी होते हुए भी, सभी सत्यों को मानव सत्य के रूप में स्वीकार करता है-तद्भूमिकाः सर्वदर्शनस्थितयः' (प्रत्यभिज्ञाहृदय सूत्र ८)। अपना मत यद्यपि अन्तिम है पर परमसत् की अभिव्यक्ति की अनन्त सम्भावनाएँ उसके साथ शेष नहीं हो जाती। (२) व्यक्ति में समष्टि की अनुस्यूति का अर्थ है प्रत्येक विचार में सार्वभौम भत्ययोग्यता अन्तर्निहित है और दर्शन का काम है उस चेतना को पल्लवित करना। (३) पिण्ड और ब्रह्माण्ड, योगी और परमशिव के समीकरण और व्यक्ति चेतना और समष्टि चेतना की एकरूपता का एक ही अर्थ है व्यक्ति को साध्य मानकर उसके विकास की चरम सम्भावनाओं का अनुसंधान । (४) व्यावहारिक स्तर पर भी प्रमेय जगत् की तुलना में प्रमाता को अपेक्षाकृत स्वतन्त्र और स्थायी स्वीकार करने से व्यक्ति की स्वतन्त्रता और स्थायिता की धारणा को बल मिलता है। (५) यह बात बार-बार सामने आ चुकी है कि तन्त्र दर्शन की अस्तित्वगत प्रवृत्ति पदार्थों के किसी गहरे अन्योन्याश्रयत्व का अनुसंधान करने में है और यह प्रवृत्ति एक प्रकार से भेद में निहित मौलिक अभेद का अन्वेषण मात्र है। तन्त्रों में यह बात कई बार दुहराई गयी है कि लोकयात्रा के सन्दर्भ में यह भेदाभेदव्यवहार ही परमार्थ दृष्टि में प्रवेश कराता है। १. देखिए, इसी गोष्ठी में पढ़ा गया डॉ० हर्षनारायण का लेख "भारतीय धर्म-दर्शन का स्वर सामाजिक समता अथवा विषमता।" २. "सर्वथा तावदत्र प्रमेये भगवत एव भेदने च अभेदने च स्वातन्त्र्यं घटगताभासभेदाभेद दृष्टिरेव परमार्थाद्वयदृष्टिप्रवेशे उपायः समवलम्बनीयः, न तु व्यवहारोऽपि अयं परमेश्वरस्वरूपानुप्रवेशविरोधी।" ईश्वर-प्रत्यभिज्ञाविशिनी (भास्करी), २, पृ० १२९ परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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