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________________ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ कुत्सिते कुत्सितस्य स्यात् कथमुन्मुखतेति चेत् ।। रूपप्रसाररसतो गहितत्वमयुक्तिगत् ॥ (शि० १० ११-१२) सारे पदार्थों में परमेश्वर की सारी शक्तियों का संस्पर्श रहता है यदेकतरनिर्माण कार्य जातु न जायते। तस्मात्सर्वपदार्थानां सामरस्यमवस्थितम् ॥ (शि० १० १.२३) यहाँ पर यह ध्यान देना चाहिए कि समता के विकास के लिए आत्मौपम्य' की भावना अनिवार्य मानी गयी है-'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।' (गीता ६.३३ में आता है—'आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥') पर वस्तु तन्त्र एक कदम आगे बढ़कर आत्मैक्य या आत्माभेद के सिद्धान्त की स्थापना करते हैं। कहना न होगा कि यह अभेदन व्यापार भेद का निषेध नहीं करता, बल्कि भेद का अभेद में उदात्तीकरण करता है तथा नानाशरीराणि भुवनानि तथा तथा । विसृज्य रूपं गृह्णाति प्रोत्कृष्टाधममध्यमम् ॥ (शि० १० १.३४) एवं सर्वपदार्थानां समैव शिवता स्थिता। परापदादिभेदोऽत्र श्रद्दधानरुदाहृतः ॥ वही-१.४८ एवं भेदात्मकं नित्यं शिवतत्त्वमनन्तकम् । तथा तस्य व्यवस्थानान्नानारूपेऽपि सत्यता ॥ वही-१.४९ महार्थमञ्जरीकार ने त्रिक शास्त्र को उद्धृत करते हुए 'समताष्टक' के द्वारा . इस सार्वात्म्य भाव का प्रतिपादन बड़ी ओजस्विता के साथ किया है समता सर्वभावानां वृत्तीनां चैव सर्वशः। समता सर्वदृष्टीनां द्रव्याणां चैव सर्वशः ॥ भूमिकानां च सर्वासामोवल्लीनां च सर्वशः। समता सर्वदेवानां वर्णानां चैव सर्वशः ॥ पृ० १६८ परम तत्त्व की और मोक्ष की 'अहम्-इदम्' के सामरस्यं के रूप में जो परिकल्पना की गयी है वह दोनों ध्रुवों का समंजसीकरण ही है जिससे समता की उपर्यक्त कल्पना स्वतः प्रवाहित होती है। इसी प्रकार परमेश्वर के विश्वमय स्वरूप को प्रकाशविमर्शमय कहने का भी निहितार्थ यही है। प्रकाश का काम है भावव्यवस्था और विमर्श का भेद में अभेदव्यवस्था। इन दोनों व्यवस्थाओं का परस्पर अन्वयन और सामंजस्यीकरण ही शिव के स्वरूप का पूर्णभाव है। सत् मात्र शुद्धसंवित् न होकर पूर्ण संवित् है और जिस चरम अभेद की कल्पना यहाँ की गयी है वह एक अपोद्धृत परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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