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________________ २४६ भारतोय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ ही कृति के दो अङ्ग हैं। अतः मीमांसा भी दो सत्यों को स्वीकार करती प्रतीत होती है। कुमारिल भट्ट व्योमशरीर, 'खं ब्रह्म' पदवाच्य परमात्मा को एकमात्र तत्त्व और वेदात्मक शब्द-ब्रह्म का अधिष्ठाता घोषित करते हुए और आत्मज्ञान के लिए वेदान्त के सेवन का उपदेश करते हुए पूर्वमीमांसा को व्यावहारिक और उत्तरमीमांसा अथवा वेदान्त को पारमार्थिक सत्य का प्रतिपादक प्रतिपादित करते पाये जाते हैं। प्रभाकर का भी कथन है कि अहङ्कार-ममकार अनात्मा में आत्माभिमान-स्वरूप है, जो मृदितकषायों को ही उपदेश्य हैं, कर्मसङ्गियों को नहीं। यहाँ पूर्वमीमांसा-प्रतिपाद्य सत्य से बड़े सत्य की परिकल्पना स्पष्ट है । यह सही है कि कुमारिल निरालम्बनवादी बौद्धों के परमार्थ और संवृति-सत्य के द्वैत का खण्डन करता है, किन्तु इससे उसका परखण्डन-चातुर्य ही प्रमाणित होता है । सत्यद्वय में विरोध ___अतएव सत्यद्वैत भारतीय दर्शन का मूल स्वर कहा जा सकता है । हमारी सुचिन्तित धारणा है कि भारतीय प्रतिभा उक्त सत्यद्वय में समन्वय के प्रति समुचित रूप से सचेष्ट नहीं रही। दोनों सत्य दो सर्वथा स्वतन्त्र संसारों का रूप ले लेते हैं, जिनमें किसी प्रकार का सञ्चार समागम अथवा संव्यवहार (कम्यूनिकेशन) सम्भव नहीं, चाहे इस सम्बन्ध में जितने भी बड़े बोल बोले जाएं। यहाँ तक कि यहाँ एक व्यक्ति एक ही विषय में एक ही साँस में दो परस्पर सर्वथा विरोधी बाते करते हुए भी महामानव बना रह सकता है, यदि वह दोनों बातों को सत्य के दोनों स्तम्भोंपरमार्थ और व्यवहार में पृथक्-पृथक् डाल सकता है। मनु आदि का आदेश है कि ज्ञानी होते हुए भी लोक में जडवत्, यन्त्रवत्, अथवा पामरवत् व्यवहार करना चाहिए जानननपि हि मेधावी जडवल लोक आचरेत् ॥" ध्यान रहे कि आलोच्य सत्यद्वैत-सिद्धान्त और व्यवहार का सामान्य द्वैत मात्र नहीं। सिद्धान्त और व्यवहार में सदा और सर्वत्र द्वैत रहता ही है, चाहे जो भी समाज़ हो, जो भी व्यक्ति हो। अन्तर केवल तारतम्य का होता है। हमारे यहाँ तो व्यवहार-सत्य में ही सिद्धान्त और व्यवहार का भेद है। अन्यत्र जो सिद्धान्त और १. तन्त्रवार्तिक ३.१.१३ (द्वि० सं० १९७२), पृ० ७० । २. श्लोकवार्तिक १.१.५, आत्मवाद, अन्त्य श्लोक। ४. श्लोकवार्तिक १.१.५, निरालम्बनवाद ६-१० । ५. मनुस्मृति २११०; संन्यासोपनिषद् २१२ । ३. बृहती १.१.५, पृ.० २५६ । परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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