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________________ भारतीय धर्म-दर्शन का स्वर सामाजिक समता अथवा विषमता ? २४५ मक्खलिगोसाल के अनुयायी आजीविक सत् और सत्य को तीन राशियों, तीन कोटियों-सत्, असत् और सदसत्-में विभक्त करने के कारण त्रैराशिक कहे जाते हैं। उनका नय सिद्धान्त भी सत्यद्वय का परामर्श करता है। उनके नय तीन हैंद्रव्यास्तिक नय, पर्यायास्तिक नय और उभयास्तिक नय-जो एक ही वस्तु के प्रति तीन दृष्टियाँ, तीन दृष्टिकोण हैं।' लोकायतमतावलम्बी जयराशिभट्ट भी सत्यद्वैत को मान्यता देता है, यह बहुत कम लोग जानते हैं। वह परमार्थ और व्यवहार ('लोकव्यवहार', 'लौकिक मार्ग') के द्वैत की ओर इङ्गित करते हुए लिखता है कि लोकव्यवहार के प्रति बालक और पण्डित समान हैं लोकव्यवहारं प्रति सदृशौ बाल-पण्डितौ। साङ्ख्य-दर्शन के अनुसार बन्धन और मोक्ष केवल प्रकृति का होता है, पुरुष का नहीं, यद्यपि वह (व्यवहारतः) प्रकृति नहीं प्रत्युत पुरुष के बन्धन और मोक्ष की चर्चा से आरम्भ करता है। यह परमार्थतः प्रतीति और व्यवहारतः प्रतीति में भेद की ओर ही संकेत नहीं तो और क्या है ? न्याय-वैशेषिक दर्शन भी उपनिषद् को अध्यात्मविद्या मानता और उसमें अपनी आस्था का सङ्केत करता है। और उपनिषद् में 'सत्य' और 'सत्यस्य सत्यं', 'अविद्या' और 'विद्या', 'अपरा' विद्या और 'परा' विद्या, का भेद सर्वविदित ही है। इसके अतिरिक्त राधामोहन गोस्वामी भट्टाचार्य और विठ्ठलेशोपाध्याय द्वारा परिगृहीत पाठ के अनुसार न्यायसूत्र के चतुर्थ अध्याय का अन्तिम, ५२ वाँ सूत्र है 'तत्त्वं तु बादरायणात्', अर्थात् तत्त्वज्ञान के लिए बादरायणीय ब्रह्मसूत्र की ओर उन्मुख होना चाहिए। यदि यह सूत्र प्रामाणिक है तो मानना होगा कि न्यायसूत्र में परमार्थ-सत्य का नहीं, व्यवहार-सत्य का प्रतिपादन हुआ है । जैमिनीय मीमांसा-सूत्र में ईश्वर का सर्वथा अनुल्लेख है, किन्तु बादरायण ने जैमिनी से जो उदाहरण लिये हैं उनसे प्रतीत होता है कि जैमिनी ईश्वरवादी-ब्रह्मवादी आचार्य थे। यहाँ इसके विवरण का अवकाश नहीं, अतः हम पाठक से ब्रह्मसूत्र के जैमिनि-विषयक सूत्रों के अवलोकन का आग्रह करके विराम लेते हैं। इसके अतिरिक्त, जैसा कि हम अन्यत्र दिखला चुके हैं , मीमांसासूत्र और ब्रह्मसूत्र मूलतः एक १. नन्दी-सूत्र (लुधियाना : आत्माराम जन, १९६६), पृ० ३३० (हिन्दी व्याख्या में उदाहृत) २. तत्त्वोपप्लवसिंह, पृ० १ । ३. साङ्ख्य-कारिका ६२ । ४. तत्रैव १७ और आगे। ५. वात्स्यायन-भाष्य १.१.१, पृ० ३ । ६. न्यायसूत्र-विवरण ४.२.५२; अद्वैतसिद्धि-गौडब्रह्मानन्दी। ७. मीमांसा-सूत्र १.२.२८,३१; १.४.१८; ४.३.११-१४; ४.४.५ ।। ८. हर्षनारायण, 'वेदान्त-वाङ्मय : एक विवेचन', दार्शनिक त्रैमासिक २९, ३ (जुलाई, १९७३)। परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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