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________________ २३२ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ। अपनी कवित्व शक्ति से ऋग्वेद को समृद्ध कर महर्षियों की समकक्षता अर्जित की है, उनमें 'आपाला' 'घोषा काक्षीवती' तथा 'विश्ववारा' अग्रणी हैं। मिथिलाधिपति, अध्यात्मतत्त्ववेत्ता महाराज जनक की सभा के उज्ज्वल हीरक, अपने जमाने के बेजोड़ दार्शनिक याज्ञवल्क्य की दो स्त्रियाँ थीं, जिनमें मैत्रेयी अपते पति की ही भाँति सर्वदा सत्यज्ञान की खोज में ही रत रहा करती थी। किसी समय भौतिक सम्पत्ति की बात करने पर उसने अपने पति से कहा था-'जिससे मैं अमर नहीं हो सकूँगी उससे मेरा क्या प्रयोजन ।' महाराज जनक की ही सभा की मध्यमणि थीं महादेवी गार्गी । उस समय विरले ही तार्किक, दार्शनिक व्यक्ति, अध्यात्मक्षेत्र के उत्तर प्रत्युत्तर कर्ताओं में अग्रणी, तेजस्वी व्यक्तित्व गार्गी के साथ शास्त्रार्थ करने का साहस कर पाते थे । उसने दार्शनिक शिरोमणि याज्ञवल्क्य के भी दाँत खट्टे कर दिये थे। दिग्गज विद्वानों को भी उसका सामना करने पर दिग्भ्रम हो जाया करता था।' वैदिक तथा दार्शनिक जगत् में अपनी प्रतिमा से जगती को आलोकित करने वाली इस धरती की नारियाँ लौकिक काव्य निर्माण में भी पुरुषों से पीछे न थीं। जिन कवियित्रियों ने अपनी कल्पना से संस्कृत-साहित्य को चतुर्दिक श्रीसम्पन्न किया है उनमें विज्जका, अवन्तिसुन्दरी तथा शीला भट्टारिका आदि का नाम चिरस्मरणीय रहेगा। प्राचीन काल में पुरुषों की ही भाँति स्त्रियों को भी उपनयन तथा वेदाध्ययन का अधिकार प्राप्त था। स्मृतिकार हारीत ने स्त्रियों के उपनयन तथा वेदाध्ययन सम्बन्धी अधिकार की व्याख्या दे रखी है। विश्व-विश्रुत भाषावैज्ञानिक पाणिनि ने भी 'आचार्या' एवं 'उपाध्याया' शब्दों के साधनार्थ व्युत्पत्ति दी है। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि सूत्र एवं वार्तिक काल में स्त्रियाँ पुरुषों की ही भाँति गुरुकुलों में देश-विदेश से आये हुए श्रद्धावनत शिष्यों को पढ़ाया करती थीं। यदि हम भारत के अतीत काल के विषय में जरा सावधानी से विचार करने का प्रयास करें तो हमें यह जानकर आश्चर्य होता है कि उस काल में भी सामान्य रूप से नारियों में शिक्षा का प्रचुर प्रचार था। गोभिलगृह्यसूत्र तथा काठकगृह्यसूत्र से यह पता चलता है कि उस समय की दुलहिने प्रायः शिक्षित हुआ करती थीं। वे अपने विवाह के अवसर पर वर के साथ ही मन्त्रोच्चारण किया करती थीं। स्पष्ट है कि १. बृहदारण्यकोपनिषद् २।४।१-३ । ३. काशिका ४।१।५९ तथा ३।३।२१ । ५. २५-२३ । । २. वही ३।७।८। ४. २।१।१९-२० । परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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