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________________ प्राचीन संस्कृत-साहित्य में मानव समता स्त्रियों की अवस्था स्वर्ग एवं अपवर्ग के मार्गभूत भारत के सुदूर अतीत के परिशीलन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस देश में अत्यन्त प्राचीन काल से ही स्त्रियों को गौरवास्पद स्थिति प्राप्त थी । उन्हें अर्द्धांगिनी का दर्जा प्राप्त था । वे देवी कही जाती थीं । इस देश के धार्मिक साहित्य ने जहाँ एक ओर विष्णु, शिव, गणेश तथा इन्द्र आदि देवों की कल्पना की है वहीं उसने दुर्गा, महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती की भी आदरास्पद सत्ता स्वीकार की है । हमारे देश के दार्शनिकों ने भी शक्ति की कल्पना ब्रह्म से कम नहीं की है । यदि वे काशी में शिव की आराधना से मुक्ति की कामना करते थे तो विन्ध्य की उपत्यका में विराजमान माँ दुर्गा की अर्चना से धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की भी अभिलाषा रखते थे । यदि हिमालय की उत्तुङ्ग शृङ्खलाओं के मध्य नर-नारायण का दर्शन कर उन्हें शान्ति मिलती थी तो भारत के सुदूर दक्षिण कन्याकुमारी में तपस्यारत कुमारी पार्वती के समक्ष श्रद्धावनत हो, वे सारी मनोकामनाएँ पूरी करने की अभिलाषा रखते थे । इस तरह हम देखते हैं कि इस देश के अत्यन्त प्राचीन परिवेश में स्त्रियों का दर्जा प्रायः पुरुषों के ही समकक्ष था । हमारे देश में विवाह एकमात्र ऐन्द्रिय सुख की तृप्ति के लिये ही न था । महर्षियों ने जिन कारणों से विवाह की आवश्यकता बतलाई है, उनमें धार्मिक कृत्यों का सम्पादन तथा पुत्रोत्पादन प्रमुख थे । धर्मपत्नी के बिना पुरुष अपूर्ण थे, उन्हें धार्मिक कृत्यों के सम्पादन का पूर्ण अधिकार प्राप्त न था । आखिर मर्यादापुरुषोत्तम राम अश्वमेध की याज्ञिक क्रिया तभी सम्पन्न कर सके, जब उन्होंने अपने वाम भाग में सीता की सुवर्णप्रतिमा स्थापित की । विवाह का दूसरा प्रमुख कारण था कालानुसार स्त्री के साथ निवास कर पुत्र उत्पन्न करना, क्योंकि इसके बिना कोई भी व्यक्ति पितृ ऋण से उऋण नहीं माना जा सकता था । ऐन्द्रिय सुख तो विवाह का अन्तिम एवं निम्नतम कारण था । स्त्री-शिक्षा यह एक बहुत बड़ी विचित्र बात है, और बहुत लोगों को यह जानकर आश्चर्य भी होगा कि वर्तमान तथा मध्यकाल की अपेक्षा प्राचीनकाल में स्त्रियों की शैक्षणिक अवस्था कहीं दिव्य एवं भव्य थी । विश्व के उपलब्ध प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद की कतिपय ऋचायें पूज्य भारतीय नारियों के द्वारा रची गई हैं। जिन भारतीय ललनाओं ने अपनी बौद्धिक परिपक्वता तथा मानसिक उच्च धरातलता के साथ १. अयज्ञियो वा एष योऽपत्नीकः । तैत्तिरीय ब्रा० २,२, २, ६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only परिसंवाद - २ www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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