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________________ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं के कार्य हैं। किन्तु धर्मशास्त्र के महारथी व्याख्याता आचार्य 'कुल्लूक' का कहना है कि 'राजा' शब्द किसी भी जाति के व्यक्ति के लिये प्रयुक्त हो सकता है। वे यह मानते हैं कि जो कोई भी व्यक्ति प्रजा का रक्षण करता है वह राजा है। महाभारत, पुराण एवं रघुवंश आदि महाकाव्य क्षत्रिय को ही राजा होने का सर्वाधिकार समर्पित करते हैं । लगता है प्रजा-रक्षण तथा क्षत्रिय जाति में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध मान लिया गया था । जगत् के पालक भगवान् विष्णु की क्षत्रिय जाति कल्पित की गई है। मनु आदि प्रारम्भिक राजा क्षत्रिय जाति के ही बतलाये गये हैं। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि दूसरी जाति के व्यक्ति राजा हो ही नहीं सकते थे। अतीत काल में इस भारत वसुधा के ऊपर कतिपय ब्राह्मण वंशों ने राज्य एवं साम्राज्य स्थापित किये थे । इनमें बहुत से अपने जमाने के बेजोड़ योद्धा एवं राजनीति के भीष्मपितामह थे। शुङ्ग साम्राज्य का संस्थापक पुष्यमित्र ब्राह्मण-वंश का ही अवतंस था। जैमिनि (२।३।३) की व्याख्या में कुमारिल भट्ट ने लिखा है कि अतीत की परिधि में सभी जातियों के लोग शासक होते देखे गये हैं। अतीत के लम्बे आयाम में यत्र-तत्र शूद्र भी शासक हुए हैं। इसके लिए मनुस्मृति में भी एकाधिक प्रमाण देखे जा सकते हैं।' मनुस्मृति के सप्तम अध्याय (श्लोक ४१) में अधार्मिक अतः राज्यच्युत किये गये राजाओं की एक संक्षिप्त तालिका है। उसमें पैजवन अथवा पैजवन सुदा नाम से एक राजा का उल्लेख किया गया है। यह पैजवन शूद्र था । इसकी विपुल सम्पत्ति की चर्चा महाभारत तथा स्कन्दपुराण में भी आई है। मन्त्रिपरिषद् राज्य के सागर सदृश विशाल कृत्य केवल एक व्यक्ति के ही सामर्थ्य से समाहित नहीं किये जा सकते । सरल कार्य भी एक व्यक्ति के लिये करना कठिन है, तो शासनकार्य, जो कि प्रजा का अनुरंजन करना अपना पावन कर्तव्य मानता है, बिना सहायकों के कैसे चल सकता है। कार्य की अधिकता के कारण एक व्यक्ति से त्रुटियां १. देखिये-११८९ । २. 'राजशब्दोऽपि नाम क्षत्रियजातिवचनः, किन्त्वभिषिक्तजनपदपुरपालयितृपुरुषवचनः । अत एवाह 'यथावृत्तो भवेन्नृपः' इति ॥' मनुस्मृति ७।१ पर कुल्लूक की टीका। ३. देखिये-हरिवंश ३।२।३५ । ४. न शूद्रराज्ये निवसेत् ....."। मनु० ४।६१ । न राज्ञः प्रतिगृह्णीयादराजन्यप्रसूतितः । मनु० ४।८४ । । ५. 'न राज्यमनमात्येन शक्यं शास्तुमपि त्र्यहम् । शान्तिपर्व १०६।११ । परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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