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________________ १८२ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं विकास का साधन मात्र है। वह हमारा ही रूप है। समाज हमें नहीं बनाता, हम उसे बनाते हैं। समाज की सारी अच्छाई-बुराई व्यक्ति हृदय की अच्छाई-बुराई है। शोषण, विषमता, हिंसा के विष को समाज में बिखेरा है व्यक्ति हृदय ने । समाज तो व्यक्ति का ही एक आयाम है। समाज की सभी समस्याओं की जड़ व्यक्ति अन्तस में है। बाहर समाधान खोजना मूर्खता है। जब तक व्यक्ति ईमानदारी से आत्मनिरीक्षण करना नहीं सीखेगा, समाधान के मार्ग का अन्वेषण नहीं कर पाएगा। सामाजिक क्रान्तियाँ करके हम देख चुके, अब आत्मक्रान्ति का ही मार्ग शेष है। यह व्यक्ति से ही प्रारभ होगा। समाज के सारे दोष व्यक्ति-मेधा से ही निकले हैं और व्यक्ति हृदय ही उनका परिष्कार कर सकता है। व्यक्ति दर्शन ही समाज दर्शन है। समाज दर्शन तो कोरी कपोल कल्पना है। सुधरना और सुधारना दो नहीं एक क्रिया है। हमारा आदर्श होना चाहिए व्यक्तिबोध, समष्टिबोध नहीं । इतिहास साक्षी है, समाज ने समाज को कभी नहीं बदला, बदला व्यक्ति ने । कहते हैं समाज हमें सभ्यता सिखाता है। कितना बड़ा भ्रम है । सभ्यता, चाहे जिस कोण से आप देखें, हमारी आवश्यकताओं की वृद्धि, हमारी तृण्णा का विस्तार ही तो है। जिसकी आवश्यकताएँ जितनी अधिक हों, वह उतना ही सभ्य माना जाता है। इन्द्रिय-तुष्टि की लालसा में ही हमने सभ्यता का विकास किया। पर हमने प्यास को इतना बढ़ा दिया कि तृप्ति के साधन जुटाते-जुटाते सम्पूर्ण विश्व के एकाएक, एक साथ आत्मघात के साधन जुटा डाले । आज हम सबसे खतरनाक जन्तु हैं। महत्त्वाकांक्षा की प्यास अन्यों को ही नहीं, अपने को भी पी जाती है । साधनों के बड़े-बड़े लठ्ठ हमारी तृष्णा की बेल को ऊँचे-ऊँचे सहारे भले ही दे दें, तप्ति नहीं दे सकते । सुख के लिए तृष्णा-तृप्ति का तरीका केवल मृग-तृष्णा है। इस रोग के धन्वन्तरि केवल भगवान बुद्ध ही थे। उनकी शरण में जाकर सीखना होगा कि तृप्ति, प्राप्ति और तृष्णा की लब्धि मात्र है । गणित की भाषा में तृप्ति = प्राप्ति तृष्णा इस समोकरण से स्पष्ट है कि प्राप्ति बढ़ने से तृप्ति नहीं बढ़ती, क्योंकि प्रत्येक प्राप्ति एक नयी और बड़ी तृष्णा को जन्म देती है। तृष्णा बढ़ी कि तृप्ति घटी। तृप्ति तो तभी बढ़ेगी जब तृष्णा घटेगी। यदि तृष्णा शून्य हो जाय तो तृप्ति अनन्त हो जाएगी। तभी तो चिल्लाकर कबीर ने कहा था 'जाको कछू न चाहिए सोइ साहंसाह'। भगवान बुद्ध का सारा अपरिग्रह-मार्ग इसी सूत्र का सक्रिय प्रयोग है । सूत्र बड़ा परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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