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________________ व्यक्ति और समाज : बौद्ध दृष्टि का एक वैज्ञानिक विश्लेषण . १८१ । समाज अपने साँचे में ढालने के प्रयत्न में, न जाने हमसे क्या-क्या दुष्कृत्य कराता है । समायोजन के चक्कर में हम सतह पर कुछ और, और तह पर बिलकुल और हो जाते हैं। ऊपर से झूठा, ईमानदार और भीतर से सच्चा बेईमान | हम ईमानदारी से अपने भीतर झाँक कर देखने का साहस भी नहीं कर पाते । अपनी नग्नता से घबराते हैं । एकान्त से डरते हैं यह सोचकर कि कहीं 'अपने' से भेंट न हो जाय । सिनेमा, रेडियो, नाटक, खेल, तमाशों की खोज स्वयं से भागने की ही तो कला है । हमें खोजना होगा अपने इन टूटे बिखरे रूपों में से अपने असली रूप को । सीखनी होगी स्वयं शिल्पी बनकर अपने व्यक्तित्व को प्राप्त करने की कला । तोड़नी होंगी हमें समाज की, संस्था की, संस्कार की मानसिक - बेड़ियाँ । समझना होगा कि हमारा व्यक्तित्व इतना निर्बल नहीं जो देश और जाति के घरौंदे से घेरा जा सके, धर्म और विश्वास के बन्धन में बाँधा जा सके । डराती होंगी वातावरण की परिस्थितियाँ किसी को हम उनके थपेड़ों की दया पर जीने वाले नहीं, और न ही उनके घात, प्रतिघातों से इधर-उधर लुढ़कने वाले हैं । हमारी अपनी गति, दिशा है । हम विश्व की एक इकाई हैं । हम कुछ ही नहीं, बहुत कुछ हैं । समाज सिखाता है— क्रोध बुरा है, काम पाप है, मोह अपराध है । हमारी सारी क्षमताएँ अपराध बता दी गयीं । कितनी संघातक भूल है । व्यक्तित्व में इनका विशिष्ट स्थान है | व्यक्तित्व के सम्पूर्ण चित्र में इनके अपने रंग हैं । इनके बिना जीवन चित्र नितांत अधूरा, बेहद बदरंगा और बिलकुल कुरूप होकर रह जाता है | क्षमा से क्रोध का विरोध नहीं । क्षमा तो क्रोध का ही चरम विकास है । क्रोध का काम का, मोह का नाश करके तो हम उनके विकसित रूपों का भी नाश कर देते हैं । इनको बिना समझे दबाने का प्रयत्न करें तो ये जहरीले फोड़े बन जायेंगे । इनका मार्गीकरण ही इनका उत्तमोत्तम उपयोग है। व्यष्टि और समष्टि जीव की दो सहज प्रवृत्तियाँ हैं आत्मविकास और आत्मविस्तार । एक का सम्बन्ध 'मैं' से है दूसरे का 'मेरा' से । इन्हीं से व्यक्ति बनता है और समाज बनता है । दीखें भले ही दो, विकास और विस्तार एक ही व्यक्ति के दो रूप हैं । सच तो यह है कि आत्मविस्तार केवल एक साधन है आत्म विकास का । आत्मविस्तार का अर्थ है सर्व में अहं का विस्तार । परिवार, ग्राम, राष्ट्र सभी आत्मविस्तार ही तो हैं । यह जीव का अपने अस्तित्व को बनाए रखने, अपने को योग्यतम सिद्ध करने के लिए संघर्ष है जिसने इन संघर्ष व्यूहों की रचना की है । समाज जीव के अन्तर्गत के परिसंवाद - २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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