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________________ १४ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं करते रहते हैं। ऐसी दशा में व्यक्ति की स्वतन्त्रता में कोई बाधा नहीं होती। कुशल, अकुशल, अच्छा, बुरा, उचित, अनुचित, पाप, पुण्य, नीति, अनीति के निर्धारण में तथा एक का निषेध कर दूसरे को ग्रहण करने में व्यक्ति स्वतन्त्र है। अतः व्यक्तित्व की अनन्यता की पहचान उसकी स्वतन्त्रता है। व्यक्ति अपना स्वामी स्वयं है, वह आत्मदीप और अनन्यशरण है। उसमें अपना निरीक्षण करना और अपनी बुद्धि के आधार पर हेय और उपादेय का निर्णय लेना स्वभावतः होना चाहिए। ऐसे निर्णय की प्रामाणिकता का आधार श्रेष्ठ लक्ष्य को प्राप्त करना है। इस प्रक्रिया से व्यक्ति में गुणात्मक विकास का अवसर मिलता है। अपने असद्प्रवृत्तियों के विरोध में स्वयं ही सद्वृत्तियों को अपनाकर श्रेष्ठ लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। इसीलिए 'पुग्गलपत्ति ' ग्रन्थ में व्यक्तियों की एक लम्बी सूची दी गई है जिसमें हीन पुरुष से लेकर श्रेष्ठ पुरुष तक का नामोल्लेख किया गया है। हीन पुरुष में पृथक्जन तथा श्रेष्ठ पुरुष में सम्यक् सम्बुद्ध हैं, जो व्यक्तित्व के आदर्श गुणों से युक्त हैं। इन्हीं दो बिन्दुओं के मध्य में व्यक्ति का विकास देखा जा सकता है। 'समाज' समान आचार विचार वाले व्यक्तियों के समूह को कहते हैं। व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज आदि का निर्माण होता है। इस प्रकार व्यक्ति और समाज में सापेक्ष सम्बन्ध होता है। सम्बन्धों के आधार पर समाज का निर्माण होता है तथा समाज से व्यक्ति प्रभावित होकर तदनुकूल आचरण करता है। अपने सम्बन्धों को सुदृढ़ रखता है। अतः व्यक्ति से समाज का निर्माण होता है इसलिए धर्म एवं दर्शन व्यक्ति को सम्यक मार्ग प्रदान कर महान बनाता है। व्यक्ति की चेतना यदि त्याग, बलिदान मैत्री और ज्ञान से युक्त होगी तो उसका व्यक्तित्व महान होगा। और ऐसे महान व्यक्तियों के संगठन से महान एवं आदर्श समाज की स्थापना होगी। सम्भवतः इसी आदर्श समाज का उदाहरण भगवान् का भिक्षुसंघ है। भिक्षुसंघ एक आदर्श समाज है जहाँ त्याग, मैत्री एवं ज्ञान का आलोक है। इस समाज में सभी समान हैं। सबके लिए एक जैसी बात है, एक ही नियम है, किसी प्रकार का भेदभाव नहीं। संघ एक स्वचालित संस्था है जिसका विधान गणराज्यों के समान होता है । महापरिनिब्बान सुत्त में अजातशत्रु द्वारा महामन्त्री वर्षकार को भेजे जाने पर भगवान् ने आनन्द से जो बातचीत की है, उससे यह पता चलता है कि भगवान् बुद्ध गणतन्त्र को श्रेष्ठ समझते थे। जिन सात अपरिहाणीय धर्मों की चर्चा वहाँ की गई है, वे प्रत्येक गणतन्त्र के आवश्यक शर्त हैं जिसके कारण प्रजातन्त्र का सञ्चालन सूचारु रूप से हो सकता है। परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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