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________________ व्यक्ति, समाज और उनके सम्बन्धों की अवधारणा अनित्य, क्षणिक, दुःख और अनात्म रूप में समझाया गया है। इस प्रकार बौद्धदर्शन में सत्ता सम्बन्धी प्रश्न का अस्ति नास्ति में कोई उत्तर नहीं दिया गया है। वरन् पञ्चस्कन्धों का विश्लेषण करके यह दिखला दिया गया है कि सब प्रतीत्यसमुत्पन्न है, अनित्य और दुःखस्वरूप है, इनमें कहीं भी 'आत्मा या सत्त्व' जैसा कोई नित्य पदार्थ नहीं मिलता है। __उपर्युक्त बातों से यह फलित होता है कि व्यक्ति के अस्तित्व के सन्दर्भ में गतिहीनता या नित्यता के लिए किसी प्रकार की भी गुंजाइश नहीं है। क्योंकि इनकी दृष्टि में वस्तु सतत् परिवर्तनशील और गतिमान है। जिस प्रकार एक प्रवाह दूसरे प्रवाह को जन्म देता है, दूसरा तीसरे को, तीसरा चौथे को उसी प्रकार नदी के प्रवाह की भाँति सभी वस्तु सतत् परिवर्तन की अवस्था में है। इसी को यहाँ 'धम्मसन्तति या सत्त्वसन्तति' कहा गया है। सभी वस्तुएँ उत्पन्न और विनष्ट होती हैं और अपने विनाश के साथ दूसरे को उत्पन्न करती रहती हैं। उत्पत्ति के साथ विनाश की यह अनिवार्यता ही व्यक्ति के अस्तित्व का द्योतक है। इसलिए इसका बौद्धिक आकलन सामान्यगत प्रवाह के रूप में ही किया जा सकता है। ___ इस तरह बौद्धदर्शन के अनुसार व्यक्ति स्वयं में न तो नित्य एवं रहस्य है और न तो उसके निर्माण में किसी अचिन्त्य बाह्य शक्तियों का हाथ है। वरन् प्रतीत्यसमुत्पन्न है । व्यक्ति के व्यक्तित्व में एक ओर नाम एवं रूप का सहवर्तित्व है तो दूसरी ओर चित्त और चैतसिकों का सहयुक्तत्व एवं अन्योन्याश्रितत्त्व। जड़ से चेतन या चेतन से जड़ का यहाँ प्रश्न नहीं है बल्कि ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं, एक के बिना दूसरी की स्थिति यहाँ मान्य नहीं है। जैसा कि अभिधम्मावतार में कहा गया है कि 'यमकं नामरूपं च उभो अञ्जोञ्जनिस्सिता । एकस्मि भिज्जमानस्मि, उभो भिज्जन्ति पच्चया' ॥ इससे यह ज्ञात होता है कि व्यक्ति को अपने जीवन के साथ ही कुछ प्राकृतिक साधन एवं सहज एषणाएँ प्राप्त हैं जो उसके व्यक्तित्व के साथ जुड़ी हैं। इस जीवनधारा में बौद्धों का कर्म सिद्धान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है जो पूर्व से पर के जीवन को जोड़ता है । भगवान् ने कर्म को चेतना कहा है। कर्म के मूल में एक चेतना है। जो मानस व्यापार के रूप में स्थित है। यह काय, वाक् आदि अन्य सभी व्यापारों का प्रेरक है। सभी कर्म चेतना के रूप में व्यक्तित्व से अभिन्नता प्राप्त १. मू०प० सु० (म० नि०) १।१।१, महानिदानसुत्त (दी० नि० २।२), महानिदानसुत्त (दो० नि०), महासतिपट्टानसुत (दी० नि० २।९), छछक्कसुत्त (म, नि० ३।५।६), सं०नि० २११७। परिसंवाद -२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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