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________________ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ आचार्य बुद्धघोष ने इन चार अकुशल प्रवृत्तियों के प्रभाव से होनेवाले दुष्कर्मों की चर्चा करते हुए कहा है कि मनुष्य छन्द अर्थात् राग के कारण अनुचित गति से गमन करते हुए अकर्तव्यों को कर्तव्य के रूप में करता है। द्वेष के कारण अनुचित मार्ग का अनुसरण करते हुए किसी व्यक्ति के प्रति वैर भावना को विकसित करता है । मोहवश या ज्ञान के अभाव में अस्वामी को स्वामी मानता है। मनुष्य भय के कारण भी पापकर्म करता है। इसलिए यह आवश्यक है कि मनुष्य अकुशल आस्रवों को जानकर विभिन्न वस्तुओं के प्रति अपने चित्त को लगाने तथा जो भी काम करे, उसे ठीक से करे। इस क्रम में भगवान बुद्ध ने कुछ ऐसे कार्यों का भी उल्लेख किया है, जो गृहस्थ आदि के लिए हानिकारक हैं। उन कार्यों को करके वह अपने संचित भोग या कोष को विनष्ट करता है। साथ ही साथ वह लोगों में अयश को प्राप्त करता है। उन कार्यों में मद्यपान, असमय में यत्र-तत्र घूमना, ऐसा स्थान जहाँ विभिन्न स्वभाव वाले लोगों का समागम होता है वहीं विचरण करना, जुआ खेलना, पापी मित्रों के साथ रहना तथा आलस्य से युक्त रहना आदि। साथ ही उन्होंने इनमें से प्रत्येक के दोषों का स्पष्टतः दिग्दर्शन कराया है (दी० नि० ३-१४२)। यथा-मद्यपान से धन की हानि, कलह की वृद्धि, रोगों की उत्पत्ति आदि प्रकार की हानियाँ होती हैं। इसी प्रकार भगवान बुद्ध ने इन कार्यों से होने वाली हानियों को स्पष्ट रूप में दर्शाया है। भगवान बुद्ध ने एक अन्य उपयोगी अंग पर भी बल दिया है और वह हैअप्रमाद । इस सम्बन्ध में तो भगवान बुद्ध ने यहाँ तक कहा है कि प्रमाद मृत्युपद है और अप्रमाद अमृतपद। जो लोग प्रमाद को छोड़कर अमृतपद की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ते हैं, वे शीघ्र ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर अपार सुख की अनुभूति करते हैं। बुद्ध की अन्तिम वाणी में भी कहा गया है कि मनुष्य को अप्रमादी होकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लग जाना चाहिए। प्रमादी अर्थात् आलसी मनुष्य तो कभी भी अपने कार्य को यथासमय नहीं करता है। फलस्वरूप उसका जीवन कष्टप्रद रहता है तथा इससे बुद्धि, धन आदि की हानि होती है । इसीलिए भगवान् बुद्ध ने कहा है अप्पमादो अमतपदं पमादो मच्चुनो पदं । अप्पमता न मीयन्ति ये पमत्ता यथा मता ॥ इस क्रम में भगवान् बुद्ध ने व्यक्ति के सम्यक विकास के लिए जीवन के एक एक क्षण के सदुपयोग को भी आवश्यक बतलाया है क्योंकि सभी पद विनयशील है परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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