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________________ बौद्ध दृष्टि से व्यक्ति का विकास १३५ एक भार्या में संतुष्ट होकर जीवन व्यतीत करे । इस प्रसंग में यह भी कहा गया है कि मैथुन- समाचार, मिथ्या - आचरण, लाभकाचार आदि एकान्ततः मिथ्याचार है । शरीर या वचन से किसी स्त्री के साथ संसर्ग करना या मन से चिन्तन करना व्यभिचार के अन्तर्गत है । इस प्रसंग में यह भी दर्शाया गया है कि पुरुष किसी प्रकार से भी पर स्त्री में अनुरञ्चन न करें । साथ ही कुछ बालिकाओं का भी उल्लेख है जो प्रत्येक स्थिति में अगमनीय है । वे हैं - माता द्वारा रक्षित, पिता द्वारा रक्षित, भाई द्वारा रक्षित आदि । इसलिए सामाजिक सुव्यवस्था एवं सामाजिक अनुकूल परिवेश बनाने के लिए यह आवश्यक है कि समाज का प्रत्येक प्राणी अकुशल कर्मों का परित्याग करे । इस क्रम में मुसावाद या असत्यकथन भी एक प्रकार का दोष माना जाता है । जो बात अतथ्य हो, उसे तथ्य के रूप में कहना, या जो बात घटित ही नहीं हो वह हो चुकी है, इस प्रकार असत्य वस्तु को सत्य के रूप में कहने की जो वचो - विज्ञप्ति को उत्पन्न करने वाली बधक चेतना है, उसे मुसावाद कहते हैं । इसके लिए भी चार बातों का होना आवश्यक है-असत् वस्तु, उसको सत्य के रूप में कथन का चित्त, उसके लिए यत्न एवं उस बात को जानना । इस प्रकार जो झूठ बोलने की प्रक्रिया है, उससे विरत रहना ही समाज को सुव्यवस्थित एवं सुखी रूप प्रदान करने में सहायक हो सकता है । उपर्युक्त चार प्रकार के पाप कर्मों से विरत रहने के लिए भगवान् बुद्ध ने उपासकों को कहा है क्योंकि ये चारों पापकर्म हिंसा में अन्तर्भूत हो जाते हैं । अतः स्थूल रूप से हिंसा का त्याग करने के लिए इनसे विरत रहना अत्यन्त आवश्यक है । इसके अतिरिक्त भी भगवान् बुद्ध ने कुछ अकुशल कर्मों की चर्चा की है तथा उनसे भी विरत रहने के लिए कहा है। वे हैं - पिशुनवचन, परुषवचन, सम्प्रलाप, अभिध्या, व्यापाद तथा मिथ्यादृष्टि आदि । उपर्युक्त कथन के अतिरिक्त बौद्ध ग्रन्थों में कुछ परिस्थितियों का भी उल्लेख है जिनसे वशीभूत होकर मनुष्य पाप कर्म करता है इन परिस्थितियों में छन्द, द्वेष, मोह तथा भय प्रसिद्ध है । इनके कारण सम्यक् पथ का परित्याग कर मनुष्य मिथ्या पथ को अपनाता है । उसे जान लेना चाहिए कि इनके प्रभाव में जो कर्म होते हैं, वे सभी हीन होते हैं । इसलिए इनके प्रभाव में आकर अशुभ कर्मों को नहीं करना चाहिए क्योंकि ये चारों अकुशल धर्म ऐसे प्रबल हैं कि इनसे या इनके कारण सम्यक् मार्ग IT अतिक्रमण हो जाता है । ऐसा होने से मनुष्य का यश वैसे ही क्षीण होने लगता है, जिस प्रकार कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा की कलाएँ क्षीण होती हैं । (दी० नि० ३ – १४० ) । परिसंवाद - २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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