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________________ १३० भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ वशीभूत या आत्मदृष्टि के कारण स्व और पर की भिन्न भिन्न बुद्धि पैदा होती है । पर के प्रति भी अपने सम्बन्धित होने न होने के भेद से राग, द्वेष एवं उपेक्षा की भिन्न भिन्न भावनाएँ स्वतः उत्पन्न होती है। इस स्थिति में जब तक व्यक्ति या पुद्गल रहता है तब तक उसको कर्म एवं क्लेश के वशीभूत या सांसारिक पुरुष कहते हैं। ___ अतः सांसारिक पुरुष को राग-द्वेष आदि समस्त दोषों के आधारभूत आत्मदृष्टि के विपरीत नैरात्म्य दृष्टि का बार-बार चिन्तन मनन करना चाहिए। नैरात्म्य ज्ञान या विचार से लाभान्वित पुरुष अन्य व्यक्तियों की तुलना में अपने लिए अत्यन्त सुख की प्राप्ति एवं दुःख के परिहार को महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं प्रदान करता है। दूसरों के प्रति भी मैत्री या सुख के योग का तथा कुछ के प्रति इसके विपरीत का विचार आता है। किसी के प्रति भी मैत्री या सुख के योग का तथा कुछ के प्रति इसके विपरीत का विचार आता है। किसी के प्रति उपेक्षाभाव जैसी विषम भावनाओं का शमन कर समस्त प्राणियों के प्रति समताभाव का उत्पाद करना नितान्त आवश्यक है। सारांश ___ यद्यपि स्वयं की महत्ता एवं स्वार्थसिद्धि सर्वोपरि है फिर भी परार्थ सिद्धि में असमर्थ व्यक्ति को अपनी स्वार्थपूर्ति हेत् परहिंसा या हानि से विरत होने की चर्या का पालन सदैव करना चाहिए। व्यक्ति तथा समाज के अहित तथा दुःखदायी चर्या की हेतु व्यक्तियों की आत्मदृष्टि तथा अज्ञानता ही है। हमें इस राग, द्वेष तथा अज्ञानता में दोष देख, व्यक्ति तथा समाज के स्वार्थ को सर्वोपरि मान, इस तुच्छ मनोवृत्ति को तिजांजलि देना चाहिए; तब बहुजन हिताय की महत्ता बढ़ती है । असंख्य प्राणियों के हित सम्पादन के लिए उद्योग श्रेयष्कर है। क्रमशः व्यक्ति या समाज में प्राणीमात्र के सुखसम्पादन एवं दुःखपरिहार करने का भार या उत्तरदायित्व अपने ऊपर सहर्ष ग्रहण करने का मनोबल या उत्साह जब कभी भी उत्पन्न करता है तभी वह महायान में प्रविष्ट होता है, इस प्रकार वह एक महायानी व्यक्ति या समाज को बनता है। यह चर्या तथा दर्शन असाधारण है। इस प्रकार की दृष्टि एवं चर्या में अवतरित व्यक्ति जिस किसी के भी सामाजिक सम्पर्क में आने पर व्यक्तिगत लाभांश तथा उत्तरदायित्वों की उपेक्षा कर सामाजिक रचनात्मक कार्यों को निःसन्देह सर्वोपरि मान्यता प्रदान करता है, पर इसमें व्यक्ति एवं व्यक्तिगत दायित्वों की अवहेलना भी इष्ट नहीं है। क्योंकि प्राणी मात्र का हित सम्पादन करना ही उसका साध्य है। परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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