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________________ बौद्ध दृष्टि में व्यष्टि और समष्टि १२९ विनय पिटक में भिक्षुसंघ, भिक्षु, व्यक्ति के व्यवहार का वर्णन आया है । सामान्यतः बौद्ध शास्त्रों में समस्त प्राणि अथवा समस्त सत्त्व की शब्दावली का व्यवहार मिलता है । परन्तु समाज या व्यक्ति (व्यष्टि) जैसे नहीं मिलती । इसका तात्पर्य यह है कि देश विशेष, न्धित किसी विशेष समाज का ही हित साध्य नहीं है, के परिहार के इच्छुक समस्त व्यक्ति एवं प्राणीमात्र का दुःख से छुटकारा तथा जनहित साध्य होना चाहिए । शब्दों का या उनकी व्याख्या जाति विशेष या उससे सम्बअपितु सुख की चाह एवं दुःख क्षणिकता सांसारिक ऐश्वर्य का क्षण-क्षण परिवर्तन एवं क्षय होना, उसका स्वभाव है । प्रिय बन्धु जैसे सम्बन्धी तथा उसके कार्य भाव भी कुहासा की भाँति प्रतिक्षण नष्ट होने वाले क्षणिक धर्म हैं । कल के सुख में क्षण-क्षण अग्रसारित होता है । इसलिए वैभवों तथा प्रिय-अप्रिय के बन्धनों को तोड़कर इस तृष्णा के समाप्त होने पर लोकगमन निर्विवाद रूप से बनता है । इस प्रकार की क्षणभंगुरता को बार-बार विचारने के फलस्वरूप अभिनिवेश क्षीण हो जाते हैं । इस क्षणिक लघु जीवन में परस्पर द्वेष जैसी भावना अनुचित है, भेद-भाव बरतना अनर्थ एवं निःसार प्रतीत होता है । फलतः व्यक्ति सामाजिक संरचना के निर्माणार्थं दानशीलता जैसी मानवीयगुण युक्त पारमिताओं के द्वारा जन-कल्याण में प्रवृत्त होने के लिए विवश हो जाता है । दुःखस्वरूप समाज, रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान ये पाँच उपादान स्कन्ध हैं । जो समस्त दोषों के आधार हैं । उपादान स्कन्ध, कर्म एवं क्लेश के परिपाक हैं । व्यक्ति और कर्म एवं क्लेश के वशीभूत हैं। प्रिय तथा अप्रिय के वियोग एवं संयोग दुःख के कारण है अर्थात् सांसारिक सुख सुविधाओं के दुःख स्वभाव के परिज्ञान से उनके प्रति अभिनिवेश, अभिमान आदि का शमन होता है । फलतः उसकी प्राप्ति की कुचेष्टाएँ त्याग कर उपाय कौशल सम्पन्न व्यक्ति निःसार सांसारिक वैभवों से उत्तम सामाजिक व्यवस्था में सतत प्रयत्नशील रहता है । नैरात्म्य हम लोगों की सहजबुद्धि में मम पर अहं की प्रतीत्यसमुत्पाद मात्रता है । व्यवहार से सन्तुष्ट न होकर किसी की उपेक्षा किये बिना अर्थात् स्वतन्त्र बुद्धि के परिसंवाद - २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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