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________________ बौद्धदर्शन के परिप्रेक्ष्य में व्यष्टि एवं समष्टि __ भारतीय दर्शन में सर्वज्ञता की, चार मुख्य दार्शनिक अभिमतों-वेदान्त, सांख्य, जैन तथा बौद्ध ने अपने-अपने ढंग से चार अवधारणायें प्रस्तुत की हैं। सर्वज्ञता में सर्वज्ञ किस सर्वस्व को जानता है, इस पर चारों में ही मतभेद है । यदि वेदान्त में 'विजातीय, स्वजातीय एवं स्वगत भेद रहित', 'एकमेव अद्वितीयम् ब्रह्म' को जान लेना; सांख्य में ज्ञाता तथा ज्ञेय के विवेक सहित ज्ञेय को सत्त्व, रजस, तमस समुच्चय स्वरूप प्रकृति को जान लेना; तथा जैन मतानुसार समस्त वस्तुओं एवं व्यक्तियों को उनके 'उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य-मय' अनन्त धर्मों-गुण दोषों, भेदों प्रभेदों आदि को सविस्तार जान लेना, सर्वस्व अथवा विश्व की समष्टि को जान लेना है तो बौद्ध मत में सर्वस्व को जान लेने से तात्पर्य है सब कुछ को 'दुःखमय (सर्वं दुःखम्) अर्थात् जरामरण युक्त', 'अनित्य (सर्वम् अनित्यं) अर्थात् सदा सर्वदा बदलता हुआ', और 'अनात्मरूप (सर्वम् अनात्मम्) अर्थात् किसी भी प्रकार की अस्मिमानता अथवा इदन्ता लिये हुए जान लेना है। निश्चय ही सर्वज्ञता में 'सर्व' का उपर्युक्त अर्थ समझने पर बौद्धमत में समष्टि भी उसी प्रकार 'जरामरण भय', 'अनित्य' एवं 'अनात्म' ठहरती है जैसे कि कोई व्यष्टि । ऐसा मूलभूत धर्म-साम्य होने पर भी व्यष्टि व्यष्टि है और समष्टि समष्टि । दोनों को एक ही नहीं कहा जा सकता। और कठिनाई तो यह है कि भिन्न भी नहीं कहा जा सकता, दोनों भी, और 'दोनों नहीं' भी, नहीं कहा जा सकता । क्योंकि शून्यता और निःस्वभावता व्यष्टि और समष्टि दोनों को ही समान रूप से लागू होते हैं। ऐसा कहना उचित ही प्रतीत होता है कि बौद्धदर्शन के परिप्रेक्ष्य में व्यष्टि का समष्टि से और समष्टि का व्यष्टि से तनिक भी वैशिष्ट्य नहीं है। परिसंघाव-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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