SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बौद्धदर्शन की दृष्टि से व्यक्ति, समाज और उनका सम्बन्ध समझते हैं। राजा को उदारचित्त, क्षमावान, कृपालु, त्यागी, दानशील और नीतिमान होने का उपदेश देते हैं। उनके अनुसार राज्य का प्रयोजन केवल प्रजा के सम्यक परिपालन के लिए है। वे राजा को उपदेश देते हैं कि अपराधी को दण्ड दे तो उस को आकांक्षा से वैसा करे, द्वेष या अर्थलिप्सा के कारण नहीं ।' वे हत्यारे के वध की भी दण्ड के रूप में स्वीकृति नहीं प्रदान करते, अपितु उसको पीड़ित करने और निर्विषय करने की बात कहते हैं। उनका वैराग्य शरीर को कष्ट देने वाला, और सभी भोगों को हेय समझकर त्यागने का प्रतिपादन नहीं है। जिस तृष्णा को सभी अनर्थों की जड़ माना जाता है और जिसके निरोध को सभी बौद्ध आवश्यक मानते हैं उसे ही बोधिसत्त्व की घोषणा के द्वारा 'सर्वजनहित' रूपी जीवन के उत्कृष्ट लक्ष्य के लिए 'उपाय' के रूप में स्वीकार किया गया है । इसी तरह, यद्यपि दुःखनिरोध परमलक्ष्य है, और दुःख को हेय माना गया है, तथापि जैसे काँटे से ही काँटा निकलता है, वैसे ही बोधिसत्त्व परदुःखविमोचनार्थ दुःख को सहर्ष भोगने को उत्सुक है। दुःख इस अवस्था में 'हेय' न होकर 'उपादेय' बन जाता है। यह भी ध्यातव्य है कि आचार्य नागार्जन राज्य के विभिन्न अधिकारियों की नियुक्ति के विषय में जिन अलग-अलग योग्यताओं एवं विशिष्ट गुणों की अनुशंसा करते हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि समाज की कल्याणकारी भावना के प्रति उनका दृष्टिकोण कितना यथार्थपरक है। भोग को वे सर्वथाभावेन तिरस्करणीय नहीं समझते अपितु किसी अधिकारी के लिए उसे विशिष्ट गुणों की श्रेणी में रखते हैं। जैसे दण्डनायक के प्रसङ्ग में वे लिखते हैं अक्षुद्रांस्त्यागिनः शूरान् स्निग्धान् संभोगिनः स्थिरान् । कुरु नित्याप्रमत्तांश्च धार्मिकान् दण्डनायकान् । (रत्नावली ४।२५) बौद्ध मत मानवतावादी है। वह मानव प्रयत्न को ही उसके कष्ट निवारण का साधन मानता है, भक्ति अथवा प्रसाद को नहीं । वह 'आप्त वचन' को आँख मदकर मान लेने का पक्षधर नहीं है। ऐसी स्थिति के कारण बौद्धमत जाति या प्रजाति का विभेद न कर मानव की समानता का पक्षधर है। वह अहिंसा और लोगों के हृदय परिवर्तन के द्वारा सर्वहित का हिमायती है, हिंसा द्वारा बलात् किसी व्यक्ति वर्ग या समाज को किसी विशेष मान्यता पर चलने के लिए बाध्य करने का समर्थक नहीं। व्यक्ति, पुद्गल नामरूपात्मक पञ्चस्कन्धों का संघात या अन्य जो भी संज्ञा दी जाय, १. वही, ४।३१-३६ । २. वही, ४१३७ । परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy