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________________ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ और पुण्यकर्म करने की बातें कही है जिससे उन व्यक्तियों को अभ्युदय की प्राप्ति हो सके, वे यश के भागी बनें और दूसरे जन्म में और अधिक अभ्युदय को (राजा या देवता के रूप में पैदा होने के रूप में) प्राप्त करें। गृहस्थों के लिए अभ्युदय के उपदेश में एवं सातवाहन राजा को प्रजा के सम्यक् पालन के उपदेश में जिन बातों को करने का नागार्जुन प्राविधान करते हैं उससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अभ्युदय में वे भौतिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि, शान्ति, सुव्यवस्था, सम्बन्धों की मर्यादा पर पूरा ध्यान दे रहे हैं और उसे हेय नहीं समझते। वे मोक्ष को भी ऐहिकता के बिना कुछ नहीं के रूप से घोषित करते हैं और ऐहिकता को महत्ता तथा अर्थवत्ता प्रदान कर 'सर्वहित' या 'लोकहित' को धर्म और नीति का लक्ष्य मानते हैं।' सुख को शारीरिक और मानसिक दो भागों में विभाजित कर गृहस्थों के लिए दान, शील, क्षमा, सत्य आदि को धर्म बतलाना यह इङ्गित करता है कि आचार्य नागार्जुन का ध्यान व्यक्तित्व के इन दोनों पहलुओं की सन्तुष्टि पर भी है, किन्तु इन सभी को 'करुणा' के द्वारा परिचालित होना आवश्यक है। 'रत्नावली' में आचार्य नागार्जुन यह भी स्पष्ट करते हैं कि श्रद्धा (औचित्य के प्रति वह निष्ठा जो राग, द्वेष, भय तथा अज्ञानादि के वशीभूत होकर डगमगाती नहीं) अभ्युदय का स्रोत है और निर्णायक तत्त्व भी है। इतना ही नहीं वे अभ्युदय और निःश्रेयस के मध्य अविरोध मानते हैं । अभ्युदय पूर्ववर्ती है और निःश्रेयस का आश्रय भी तथा निःश्रेयस से कभी कटकर नहीं रहता । अभ्युदय सुख है और निःश्रेयस उसकी उत्कृष्ट स्थिति । उन्होंने स्व और पर, प्रवृत्ति और निवृत्ति, भावना और बुद्धि (रोजन) का समाहार लोकरञ्जन या लोककल्याण के रूप में किया और घोषणा की कि वह आचरण धर्म कहे जाने की पात्रता नहीं रखता, जिससे परद्रोह समाप्त न हो तथा लोक के प्रति अनुराग न हो ।' स्पष्ट है कि यहाँ लोक का अहित अधर्म है। जो श्रद्धा अभ्युदय का साधन बतलायी गयी है वह प्रज्ञादीप्त श्रद्धा है, अन्धविश्वास नहीं। यही श्रद्धा प्रज्ञा से परिशुद्ध बनकर करुणा या महाकरुणा में परिवर्धित हो जाती है। . अतः बौद्ध समाज व्यवस्था (उसे बौद्ध समाजदर्शन भी कह सकते हैं) नीतिप्रधान, मूल्यात्मक और मध्यममार्गी है। अतः राजव्यवस्था को नागार्जुन धर्मप्रवण बनाना चाहते हैं और तदर्थ सत्य, त्याग, शान्ति और प्रज्ञा आदि गुणों को वांछनीय १. मोक्षे नात्मा न च स्कन्धा मोक्षश्चेदीदृशः प्रियः ।। __ आत्मस्कन्धापनयनं किमिहैव तवाप्रियम् ॥ रत्नावली ११४१ २. शारीरं मानसं चैव सुखद्वयमिदं मतम् ॥ रत्नावली २०४६ ३. रत्नावली १५। ४. रत्नावली ४।७४, ४।८१, ४।६ । परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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