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________________ ८१ विमलकीतिनिर्देशसूत्र के अनुसार व्यष्टि एवं समष्टि का सम्बन्ध आचार्य आर्यदेव ने एक स्थल पर लिखा है अद्वितीयं शिवद्वारं कुदृष्टीनां भयंकरम् । विषयः सर्वबुद्धानामिति नैरात्म्यमुच्यते ॥ चतुःशतककारिका १२-१३ (२८८) ३-व्यष्टि और समष्टि की एकता उपर्यक्त चर्चा से यह भ्रान्ति होने का डर है कि बौद्ध मतानुसार न व्यक्ति है और न समाज, इसलिए दोनों की महत्ता की चर्चा करना और उनके सम्बन्ध पर विचार करना व्यर्थ है। वास्तव में ऐसी भ्रान्ति की कोई गुंजाइश बौद्ध परम्परा में है नहीं। परमार्थतः व्यक्ति एवं समाज दोनों ही असत् हैं। परमार्थ में न व्यक्ति है और न समाज है, अतः उन दोनों के मध्य संघर्ष अथवा सामञ्जस्य की समस्या भी परमार्थ में नहीं हो सकती है। व्यक्ति एवं समाज के प्रश्न सांसारिक अथवा व्यावहारिक प्रश्न है, पारमार्थिक नहीं। कि हम लोग परमार्थ की गवेषणा में रुचि नहीं रखते हैं इसलिए हमको परमार्थ चर्चा अच्छी नहीं लगती है। बौद्ध शास्त्रकारों को हमारी रुचि और अरुचि का ज्ञान था । इसलिए उन्होंने ऐसी विचार-प्रणाली प्रस्तुत की है जिसमें संसार को ही बुद्ध क्षेत्र समझकर व्यष्टि और समष्टि के भेदों का अतिक्रमण किया जा सकता है और इस प्रकार 'अद्वितीय शिवद्वार' का उद्घाटन भी सम्भव हो जाता है। विमलकोतिनिर्देश इसी विचार-प्रणाली की विस्तृत व्याख्या सफलतापूर्वक करता है। यहाँ पर हम परमार्थसत्य और व्यवहारसत्य (अथवा संवृति सत्य) के विचारों की चर्चा नहीं करेंगे, क्योंकि वे सुविदित विचार हैं । यहाँ पर हम इस विचार का स्पष्टीकरण करेंगे कि परमार्थ एवं व्यवहार दोनों ही दृष्टियों से व्यष्टि और समष्टि की मूलभूत एकता अथवा समता के आदर्श को व्याख्या बौद्ध तत्त्वचिन्तन का प्रमुख विषय है। बौद्ध तत्त्वचिन्तन न भौतिकवादी है, न समाजविरोधी है और न पलायनवादी है । समाज और संसार में रहने वाले प्राणियों के हित एवं सुख के स्वरूप की गवेषणा करना तथा उनके सम्पादन के उपायों का विकास करना बौद्धधर्म-दर्शन का मुख्य प्रयोजन रहा है। भगवान बुद्ध और उनके प्रमुख अनुयायी तत्त्ववेत्ताओं ने जिन उत्कृष्ट सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, वे देखने व सुनने में लोक में प्रचलित मतों के सर्वथा प्रतिकूल लगते हैं। यह बात भी बुद्धवाणी के अन्तर्गत स्वीकार की गयी है। विमलकीतिनिर्देशसूत्र (द्वादशपरिच्छेद) में तथागत ने कहा है-"ये सूत्रान्त सर्वप्रकार से लोकमत के प्रतिकूल हैं, इन सूत्रान्तों को समझना, देखना और इनका परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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