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________________ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ वि सूत्र के अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। जर्मनी के बौद्ध भिक्षु तथा तरुण विद्वान् डॉ० प्रासादिक ने और मैंने इस सूत्र के भोटीय अनुवाद का विस्तृत अध्ययन किया है जिसके परिणामस्वरूप विमलकीर्तिनिर्देशसूत्र का भोटीय संस्करण, संस्कृत उद्धार तथा हिन्दी अनुवाद तैयार हो चुका है। विस्तृत भूमिका तथा टिप्पणियों के साथ तीन भाषाओं में यह ग्रन्थ शीघ्र ही सारनाथ स्थित केन्द्रीय तिब्बती उच्च शिक्षा एवं शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित होने वाला है। इस सूत्र में बारह परिवर्त हैं। इसके प्रकाशन का मूलस्थल वैशाली नगर है । विमलकीति एक बौद्ध गृहपति अथवा उपासक है जो बोधिसत्त्वचर्या में निष्णात और उपायकौशल्य में निपुण है। भगवान् बुद्ध का समकालीन यह उपासक सूत्र के बारह परिवर्तों में से ग्यारह परिवों में प्रमुख वक्ता एवं शास्ता है। इसी कारण इस सूत्र को विमलकीर्तिनिर्देश कहा गया है। २-व्यष्टि और समष्टि का तात्त्विक विश्लेषण विमलकीतिनिर्देश अद्वयपरमार्थ का तात्त्विक विश्लेषण और विवेचन करता है । अद्वयपरमार्थ अथवा अद्वयधर्म की दृष्टि से व्यष्टि नामक कोई वस्तु कहीं है ही नहीं। पञ्चस्कन्ध के व्ययधर्मी संघात को कुछ लोग शरीर की संज्ञा देते हैं। इस नश्वर संघात में आत्मा, जीव, सत्त्व अथवा पुद्गल नाम की कोई चीज नहीं है। आत्मा के अभाव में आत्मीय का अभाव स्वाभाविक है। व्यक्ति के अभाव में भी व्यक्तित्व का अभाव सिद्ध है। तत्त्वचिन्तक की दृष्टि से व्यष्टि की सत्ता की कल्पना अविद्या की उपज है। प्रत्येक शरीर अग्नि की तरह निर्जीव, आकाश की तरह निःस्वभाव तथा वायु की तरह व्यक्तित्वरहित है। ऐसे शरीर को व्यष्टि नहीं समझा जा सकता है। यह भी स्वयं सिद्ध है कि पाँच स्कन्धों के संघात के बाहर भी व्यष्टि नाम की किसी वस्तु की सत्ता नहीं हो सकती है। चूंकि व्यष्टि अनुपलब्ध है, अतः व्यष्टियों का संघात समष्टि भी बन्ध्या स्त्री के बच्चों के समूह की भाँति ही होगा। इस प्रकार परमार्थतः न व्यष्टि है और न समष्टि है। आत्मा की कल्पना के आधार पर परमात्मा की कल्पना की जाती है। आत्मा के अभाव से परमात्मा का अभाव फलित होता है। समष्टि की धारणा आत्मभाव और परभाव की कल्पना पर निर्भर करती है । आत्मभाव के अभाव में परभाव का अभाव निहित है। आत्मभाव एवं परभाव दोनों का अभाव होने से समष्टि का अभाव सिद्ध हो जाता है। अतएव बौद्ध विचारकों ने नैरात्म्य को ही एकमात्र अद्वयपरमार्थ कहा है। यह मत बहुत से लोगों को भयभीत कर सकता है । परन्तु बौद्ध दृष्टि के अनुसार यही मत युक्तियुक्त है और यही मत कल्याण का दरवाजा खोलता है। परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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