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________________ अनेकान्तवाद और अहिंसा : एक शास्त्रीय परिशीलन 189 (२) ईश्वर के अस्तित्व की तरह उसके गुणों के सम्बन्ध में भी पूरा सन्देह हो सकता है । ईश्वर एक, सर्वशक्तिमान्, नित्य तथा पूर्ण समझा जाता है । सर्वशक्तिमान् होने के कारण से भी वस्तुओं का मूल कारण समझा जाता है । भारतीय आस्तिक दर्शन के कतिपय आचार्य यह नहीं मानते कि ईश्वर सर्वशक्तिमान् होने ही के कारण विश्व-प्रपंच में उपादान-कारण, निमित्तकारण और साधारण कारण तीनों के मूल में हो। विश्व के निर्माण में पंचभूत उपादानकारण हैं, और जीवों के निमित्त विश्व का निर्माण होता है। हाँ, ईश्वर विश्व-प्रपंच का साधारण कर्ता है। यदि हम ईश्वर को करनेवाला, नहीं करनेवाला और दूसरे प्रकार से करने-वाला समझते हों तो यह उन आचार्यों के विचार में युक्तियुक्त नहीं होता । इसे दार्शनिक शब्दों में कर्तुम् अन्यथा कर्तुं समर्थः' कहते हैं । यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान् है, तो क्या वह अपने समान दूसरे ईश्वर का निर्माण कर सकता है, अथवा वह एक ऐसा पत्थर बना सकता है, जिसे वह स्वयं नहीं उठा सके । इसका उत्तर हम 'नहीं' में देंगे, तो ईश्वर सर्वशक्तिमान् कैसे हुआ? विश्व की सृष्टि में प्रकृति, जीव और ईश्वर तीनों की आवश्यकता है । ये तीनों नित्य हैं। ये न सादि और न सान्त हैं। किन्तु यह सत्य नहीं है; क्योंकि हम प्रतिदिन देखते हैं कि घर, बरतन आदि अनेक वस्तुएँ हैं, जिन्हें ईश्वर नहीं बनाता । ईश्वर को एक माना जाता है और कहा जाता है कि अनेक ईश्वरों को मानने से उनमें मतों एवं उद्देश्यों में संघर्ष हो सकता है, जिसका फल यह होगा कि संसार में सामंजस्य नहीं होगा, किन्तु हम देखते हैं कि संसार में सामंजस्य है। इसलिए यह सिद्ध है कि ईश्वर एक है। लेकिन यह युक्ति ठीक नहीं है । कई गृहशिल्पी मिलकर भवन बनाते हैं और मधुमक्खियों का समुदाय मधुकोष का निर्माण करता है । ईश्वर को नित्यमुक्त और नित्यपूर्ण माना जाता है, किन्तु मुक्ति की प्राप्ति तो बन्धन के नाश से ही होती है । जब ईश्वर में बन्धन नहीं होता, तब मुक्ति कैसी? जैन धर्मावलम्बी ईश्वर को तो नहीं मानते, किन्तु वे सिद्धों की आराधना करते हैं । उनकी दृष्टि में ईश्वर के लिए आवश्यक गुण सिद्धों में होते हैं । अत:, जैन साधक तीर्थंकरों की पूजा-आराधना करते हैं । इसके अतिरिक्त जैन पंच परमेष्ठी को मानते हैं, जो ये हैं-अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । अनीश्वरवादी होने पर भी जैनों में धर्मोत्साह होता है। धार्मिक क्रिया-कलाप की शिथिलता नहीं होती। जैनधर्मावलम्बी स्वावलम्बी होते हैं । वे पूतचरित तीर्थंकरों का ध्यान और चिन्तन करते रहते हैं । वे करुणा के लिए पूजा-वन्दना नहीं करते, प्रत्युत पूजा-वन्दना में उनका लक्ष्य आत्मोन्नति और पूर्वजन्म के कर्मों के नाश का ही होता है । तीर्थंकर उनके मार्ग-प्रदर्शन के लिए आदर्श होते हैं। जैनधर्म हिन्दूधर्म की ही एक शाखा है : स्व. पं. जवाहरलाल नेहरू (भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री) कहते हैं कि जैनधर्म और बौद्धधर्म वैदिक धर्म और उसकी शाखाओं से हटकर थे, यद्यपि एक अर्थ में ये स्वयं उसी से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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