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________________ 188 Vaishali Institute Research Bulletin No. 8 ग. मन, वचन तथा कर्म में गुप्ति या संयम का अभ्यास करना चाहिए । घ दस प्रकार के धर्मों का आचरण करना चाहिए, जो ये हैं— क्षमा, मार्दव (कोमलता), आर्जव (सरलता), सत्य, शौच, संयम, तप (मानस तथा बाह्य) त्याग, आकिंचन्य ( किसी पदार्थ से ममता न रखना) और ब्रह्मचर्य । ये धर्म धृति, क्षमा आदि ही हैं। ङ. जीव और संसार के यथार्थ तत्त्व के सन्बन्ध में भावना करनी चाहिए । अर्थात् उसे बार-बार स्मरण करना चाहिए । 1 च. भूख, प्यास, शीतोष्ण आदि के कारण जो कष्ट या उद्वेग हो उसे, सहन करना चाहिए । छ. समता, निर्मलता, निर्लोभता और सच्चरित्रता प्राप्त करनी चाहिए । कतिपय जैन आचार्य उपरिकथित सभी आदेशों को आवश्यक नहीं समझते; क्योंकि पंचमहाव्रत में ही उनका किसी-न-किसी तरह से समावेश हो जाता है । पंचमहाव्रत ये हैं- (१) अहिंसा; (२) सत्य, (३) अस्तेय; (४) ब्रह्मचर्य; और (५) अपरिग्रह | योगदर्शन (पातंजल) में 'अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः' कहा है । यहाँ इन महाव्रतों में से मात्र अहिंसा का ही विवेचन किया जायेगा। जैनधर्म के कतिपय विशेष लक्षण ये हैं । जैन दर्शन अनीश्वरवादी है : : बौद्ध धर्म की भाँति जैन धर्म (दर्शन) भी ईश्वर को नहीं मानता, इसके लिए वह अनेक युक्तियों को प्रस्तुत करता है । (१) प्रत्यक्ष के द्वारा ईश्वर का ज्ञान नहीं मिलता । उसका अस्तित्व युक्तियों के द्वारा प्रमाणित होता है । न्यायदर्शन के अनुसार प्रत्येक कार्य के लिए एक कर्ता की आवश्यकता है । निर्मित वस्तु होने के कारण गृह को हम एक कार्य के रूप में देखते हैं, उसका निर्माण किसी ने किया। उसी प्रकार संसार भी एक कार्य है, जिसका निर्माण करनेवाला ईश्वर नाम से कहा गया है । संसार कार्य है, यह निश्चय के साथ नहीं कहा जा सकता है। इसके अवयव हैं, तो आकाश के भी अवयव हैं । किन्तु नैयायिक तो संसार को कार्य मानते हैं, किन्तु आकाश को कार्य नहीं मानते, उसे नित्य मानते हैं। कार्य का निर्माता उसे अपने विभिन्न शारीरिक अवयवों के द्वारा निर्माण में सहयोग करता है, किन्तु ईश्वर को शरीर नहीं है, इसलिए उसके अवयव भी नहीं हैं, तो वह किस प्रकार उपादानों के साथ संसार का निर्माण कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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