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________________ 190 Vaishali Institute Research Bulletin No. 8 निकले थे । ये वेदों को प्रमाण मानने से इनकार करते थे, और जो बात सबसे बुनियादी है, वह यह है कि वे आदि कारण के बारे में या तो मौन हैं या उससे इनकार करते हैं। दोनों ही अहिंसा पर जोर देते हैं और ब्रह्मचारी, भिक्षुओं और पुरोहितों के संघ बनाते हैं। उनका दृष्टिकोण एक हद तक यथार्थवादी और बुनियादी दृष्टिकोण है, हालाँकि जब अनदेखी दुनिया पर विचार करना हो, तो लाजिमी तौर पर यह दृष्टिकोण हमें बहुत आगे तक नहीं ले जा सकता । जैन धर्म का एक बुनियादी सिद्धान्त है कि सत्य हमारे विचारों से सापेक्ष है। यह एक कठोर नीतिवादी और अपरोक्षवादी विचार-पद्धति है और इस अर्थ में जीवन और विचार में तपस्या के पहलू पर जोर दिया गया है । जैनधर्म तत्कालिक स्थापित धर्म से विद्रोह करके उठा था और बहुत तरह से उससे भिन्न था, जाति की ओर सहिष्णुता दिखाता था और स्वयं उससे मिल-जुल गया था । यही कारण है कि वह आज भी जीवित है और हिन्दुस्तान में जारी है। वह हिन्दू धर्म की करीब-करीब एक शाखा बन गया है । ' स्व. डॉ. मंगलदेव शास्त्री, डी. फिल्. (लन्दन) पूर्व प्राचार्य, क्वींस कॉलेज, वाराणसी की मान्यता है कि जैन दर्शन नास्तिक नहीं है । जैन दर्शन का महत्त्व उसकी प्राचीन परम्परा को छोड़कर अन्य महत्त्वों के आधार पर भी है। किसी भी तात्त्विक विमर्श का विशेषतः दार्शनिक विचार का महत्त्व इस बात में होना चाहिए कि वह प्रकृत वास्तविक समस्याओं पर वस्तुतः उन्हीं की दृष्टि से किसी प्रकार के पूर्वाग्रह के बिना विचार करे । भारतीय अन्य दर्शनों में शब्दप्रमाण पर जो प्रामुख्य है, वह एक -प्रकार से उनके महत्त्व को कुछ कम ही कर देता है। उन दर्शनों में ऐसा प्रतीत होता है कि विचारधारा की स्थूल रूप-रेखा का अंकन तो शब्द-प्रमाण कर देता है और तत्त्व-दर्शन केवल अपने-अपने रंगों को ही भरना चाहते हैं। इसके विपरीत जैन दर्शन में ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कोई बिलकुल साफ स्लेट पर लिखना शुरू करता है। विशुद्ध दार्शनिक दृष्टि से इस बात का बड़ा महत्त्व है। किसी भी व्यक्ति में दार्शनिक दृष्टि के विकास के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह स्वतन्त्र विचारधारा की भित्ति पर अपने विचारों का निर्माण करे और परम्परा-निर्मित पूर्वाग्रहों से अपने को बचा सके । उपर्युक्त दृष्टि से इस दृष्टि में मौलिक भेद है। पूर्वोक्त दृष्टि में दार्शनिक दृष्टि शब्द- प्रमाण के पीछे-पीछे चलती है और जैन दृष्टि में शब्द-प्रमाण को दार्शनिक दृष्टि का अनुगामी होना पड़ता है 1 इसी प्रसंग में भारतीय दर्शन के विषय में परम्परागत मिथ्या भ्रम का उल्लेख करना भी आवश्यक प्रतीत होता है । कुछ काल से लोग समझने लगे हैं कि भारतीय दर्शन की आस्तिक और नास्तिक नाम से दो शाखाएँ हैं । तथाकथित वैदिक दर्शनों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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