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________________ 138 Vaishali Institute Research Bulletin No. 8 यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में लिखित है। इसमें छह अध्याय हैं, जिसके प्रथम चार अध्यायों में प्राकृत के मात्रिक छन्दों का और पंचम अध्याय में संस्कृत के वर्णवृत्तों का विवेचन है । षष्ठ अध्याय में प्रस्तार आदि का विवेचन है । विरहांक ने लक्षण - उदाहरण- तादात्म्य शैली को अपनाया है, अर्थात् छन्दों के लक्षण उन्हीं छन्दों में दिये गये हैं, जिनका विवेचन अभीष्ट है । इसमें प्राकृत और संस्कृत के छन्दों का ही प्राधान्य है, अपभ्रंश के बहुत थोड़े छन्दों का उल्लेख इसमें हुआ है और जो हुआ भी है, वह आकस्मिक ही है । इसमें पिंगल की तरह सूत्रशैली का आश्रय न लेकर पूरे पद्य में छन्दों के लक्षण कहे गये हैं । द्विमात्रा, त्रिमात्रा, पंचमात्रा और उनके भेदों के नाम तकनीकी आधार पर रखे गये हैं, जैसे पंचमात्रा के लिए अशनि, प्रहरण, आयुध आदि, चतुर्मात्रा के लिए गज, तुरंग, तोमर, पदाति आदि । इस प्रकार का प्रयोग पिंगल ने भी किया है, किन्तु जिस प्रकार की पूर्णता का प्रदर्शन विरहांक में है, वैसी पूर्णता पिंगल में नहीं हैं। गाथालक्षण' : इसके रचयिता नन्दिताढ्य का नाम ग्रंथ के छन्द ३१ में आया है : तह मणि जिह कह तिह पाइए नत्थि । ग्रन्थ के प्रारम्भ में कवि ने भगवान् नेमिनाथ की वन्दना की है । इससे स्पष्ट है कि नन्दिताढ्य जैन मुनि थे । डा. वेलंकर ने इनका समय १००० ई. के लगभग स्वीकार किया है। I गाथालक्षण प्राकृत में लिखित छन्दः शास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । ग्रन्थ के नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें प्राकृत के महत्त्वपूर्ण छन्द गाथा का विवेचन है। इसमें कुल ९२ छन्द हैं, किन्तु डा. वेलंकर की मान्यता है कि इसके कुछ अंश अप्राप्य हैं और कुछ प्रक्षिप्त हैं । यद्यपि अपभ्रंश के कुछ छन्दों का इसमें अपभ्रंश भाषा में ही विवेचन है, किन्तु ऐसा लगता है कि अपभ्रंश के प्रति रचनाकार की अरुचि है । छन्द ३१ में अपभ्रंश भाषा के शब्दों के प्रति अपनी अरुचि तथा प्राकृत के प्रति अपने मोह को उसने संकेतित भी कर दिया है । स्वयम्भूच्छन्द : इसके रचयिता स्वयम्भू हैं । महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने स्वयम्भू को 'पउमचरिउ' के रचयिता से अभिन्न माना है, किन्तु डा. वेलंकर दोनों को भिन्न-भिन्न मानते हैं । डा. हीरालाल जैन राहुलजी के मत का समर्थन करते हैं । स्वयम्भू का समय लगभग १०वीं शती है । ० स्वयम्भूच्छन्द की विशेषता इसमें निहित है कि स्वयम्भू ने संस्कृत के वर्णवृत्तों का लक्षण - निर्देश भी मात्रागणों के आधार पर किया है और उनके उदाहरण भी प्राकृत-काव्यों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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