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________________ प्राकृत- अपभ्रंश छन्द: परम्परा एवं विकास से ही दिये हैं । इसकी एक विशेषता यह भी है कि छन्दों के उदाहरण के रूप में जिन कवियों के पद्य लिये गये हैं, उनके नामोल्लेख भी, कुछ को छोड़कर, इन्होंने कर दिया है । स्वयम्भू ने द्विमात्रिक, त्रिमात्रिक, चतुर्मात्रिक, पंचमात्रिक तथा षाण्मात्रिक गणों के बोध के लिए क्रमशः द, त, च, प तथा छ का प्रयोग किया है, जो अत्यधिक सुविधाजनक है । एक छन्द से दूसरा छन्द किस प्रकार बन जाता है, 'श्रुतबोध' की इस प्रणाली का उपयोग भी स्वयम्भू ने किया है । छन्दशेखर ११ : 139 इस ग्रन्थ का केवल पंचम अध्याय ही उपलब्ध हो सका है, जिसका प्रकाशन डा. एच. डी. वेलंकर महोदय ने किया है। डा. वेलंकर ने इसके रचयिता राजशेखर का समय ११ वीं शती ई. के मध्यभाग में निर्धारित किया है । राजशेखर ने तीन प्रकार के छन्द माने हैं— संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के छन्द | स्वयम्भू से इनका अन्तर यह है कि स्वयम्भू ने दो प्रकार के ही छन्द माने हैं - प्राकृत और अपभ्रंश । इसका तात्पर्य है कि राजशेखर वर्णवृत्तों को संस्कृत का छन्द मानते हैं । इस ग्रन्थ के पंचम अध्याय में कुछ प्राकृत के छन्दों का और शेष अपभ्रंश के छन्दों का विवेचन है। राजशेखर ने स्वयम्भू का पूर्णतः अनुसरण किया है । दोनों में अन्तर मात्र इतना ही है कि जिस बात को स्वयम्भू ने प्राकृत में लिखा है, उसे राजशेखर संस्कृत में लिखते हैं । स्वयम्भू की तरह राजशेखर ने भी ६,५,४,३, २ मात्रा के प्रतीक रूप में ष, प,च,त और द वर्णों का प्रयोग किया है। पंचम अध्याय में कुल २३८ छन्द हैं । .१२ इस ग्रन्थ के लेखक और टीकाकार के विषय में विशेष ज्ञान नहीं है । ग्रन्थकर्ता ने अपना परिचय कहीं भी नहीं दिया है। डा. वेलंकर ने ग्रन्थ का रचनाकाल १३वीं शताब्दी निर्धारित किया है। Jain Education International सम्पूर्ण ग्रन्थ छह उद्देश्यों में बँटा है । ग्रन्थकार ने छन्दों के तीन विभाग किये - मात्रा, वर्ण और मिश्र । वर्णवृत्तों के लक्षण लक्षण - लक्ष्य शैली में एक या दो पंक्तियों में दिये हैं । मात्रिक छन्दों का विभाजन पादों के आधार पर किया गया है । छन्दों के ग्यारह विभाग किये गये हैं— द्विपदी, चतुष्पदी, पंचपदी, षट्पदी, सप्तपदी, अष्टपदी, नवपदी, दशपदी, एकादशपदी, द्वादशपदी और षोडशपदी । छन्दों के लक्षण क, च, ढ, त, प के द्वारा दिये गये हैं, जो क्रमशः द्विमात्रिक, त्रिमात्रिक, चतुर्मात्रिक, पंचमात्रिक और षाण्मात्रिक गणों के बोधक हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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