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________________ प्राकृत-अपभ्रंश छन्द : परम्परा एवं विकास 137 अर्थ में है कि इसने छन्दःशास्त्र के क्षेत्र में भी औचित्य-तत्त्व की स्थापना कर आलोचना के एक नये द्वार का उद्घाटन किया। इनसे पहले और किसी ने इस तरह का विवेचन प्रस्तुत नहीं किया था। प्राकृत-अपभ्रंश के छन्दोग्रन्थ : लोक के बीच प्रचलित मात्रिक छन्दों का विवेचन प्राकृत-अपभ्रंश छन्दों की मुख्य विशेषता है। इनमें कुछ को छोड़कर शेष सभी में कुछ अंश प्राकृत और कुछ अंश अपभ्रंश भाषा में लिखित हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ इस प्रकार हैं : १. जानाश्रयी छन्दोविचिति३: इस ग्रन्थ के रचयिता के सम्बन्ध में मतभेद है । ऐसी मान्यता है कि इसके रचयिता कोई जनाश्रय कवि थे, जिनका समय छठी शताब्दी ई. है, लेकिन इसके कृतिकार ने जनाश्रय के प्रताप, प्रभाव एवं सम्पत्ति की प्रशंसा की है। इससे स्पष्ट है कि ग्रन्थ का रचयिता राजा जनाश्रय का आश्रित था और उस राजा ने ग्रन्थकार को ग्रन्थ-प्रणयन का आदेश दिया था। एम. रामकृष्ण कवि का अनुमान है कि इस ग्रन्थ का रचयिता गणस्वामी था, जिसने स्वयं अपनी कृति पर भाष्य लिखा : जानाश्रयीं छन्दोविचितिं गणस्वामिविरचितव्याख्यां व्याख्यास्यामः ॥१॥ यह ग्रन्थ संस्कृत में लिखित है। इसका अन्तिम अध्याय इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि यह प्राकृत छन्दों का विवेचन प्रस्तुत करता है । इस ग्रन्थ का महत्त्व इस दृष्टि से भी है कि इसके रचयिता ने पिंगल से भिन्न पथ का अनुसरण करने का प्रयास किया है। पिंगल ने आठ गण माने हैं और तीन अक्षरों के समूह को गण का आधार स्वीकार किया है। जनाश्रयी अठारह प्रकार के गण मानते हैं और दो से लेकर छह अक्षरों के समूह तक को गण का आधार घोषित करते हैं । यति को जितना महत्त्व पिंगल ने दिया है, उससे अधिक महत्त्व जनाश्रयी ने दिया है। इन्होंने बताया है कि यति-भेद से छन्द-भेद किस प्रकार हो जाता है। चन्द्रावर्त, माला और मणिगुणनिकर (जना.म ७४-७६) में भेद यति को लेकर ही है। २. वृत्तजातिसमुच्चय : इसके रचयिता विरहांक हैं । डा. वेलंकर महोदय ने इनका समय छठी-आठवीं के बीच माना है, जब अपभ्रंश-भाषा साहित्यिक रूप धारण करने लगी थी और वल्लभी का राजा गुणसेन उसमें कविता करने लगा था। इस ग्रन्थ पर गोपाल ने टीका लिखी है, जिसका समय विरहांक से कुछ शताब्दी बाद है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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