SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 92 Vaishali Institute Research Bulletin No. 8 हरिवंश में जटिलमुनि अथवा उनके वरांगचरित का उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त भी पम्प ने अपने आदिपुराण (ई. सन् ९४२) में, नयनसेन ने अपने धर्मामृत (ई. सन् १११२) में और पार्श्वपण्डित ने अपने पार्श्वपुराण (ई. सन् १२०५) मे, जन ने अपने अनन्तनाथपुराण (ई. सन् १२०९) में,१° गुणवर्ग द्वितीय ने अपने पुष्पदन्तपुराण (ई. सन् ११३०)११ में, कमलभवन ने अपने शान्तिनाथपुराण (ई. सन् १२३३)२२ में और महाबल कवि ने अपने नेमिनाथपुराण (ई. सन् १२५४) में जटासिंहनन्दी का उल्लेख किया है। इन सभी उल्लेखों से यह ज्ञात होता है कि जटासिंहनन्दी यापनीय, श्वेताम्बर और दिगम्बर तीनों ही परम्पराओं में मान्य रहे हैं। फिर भी सर्वप्रथम पुत्राटसंघीय जिनसेन द्वारा जटासिंहनन्दी का आदरपूर्वक उल्लेख यह बताता है कि वे सम्भवत: यापनीय परम्परा से सम्बन्धित रहे हों। क्योंकि, पुन्नाटसंघ का विकास यापनीय पुन्नागवृक्षमूलगण से ही हुआ है।५ पुनः श्वेताम्बर आचार्य उद्योतनसूरि ने. यापनीय आचार्य रविषेण और उनके ग्रन्थ पद्मचरित के साथ-साथ जटासिंहनन्दी के 'वरांगचरित' का उल्लेख किया है। इससे ऐसी कल्पना की जा सकती है कि दोनों एक ही परम्परा के और समकालिक रहे होंगे। पुनः श्वेताम्बर और यापनीयों में एक-दूसरे के ग्रन्थों के अध्ययन की परम्परा रही है। यापनीय आचार्य प्राचीन श्वेताम्बर आचार्यों के ग्रन्थ पढ़ते थे। जटासिंहनन्दी के द्वारा प्रकीर्णकों, आवश्यकनियुक्ति तथा सिद्धसेन और पउमचरिय का अनुसरण यही बताता है कि वे यापनीय सम्प्रदाय से सम्बन्धित रहे होंगे। क्योंकि, यापनीयों द्वारा इन ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन एवं अनुसरण किया जाता था, इसके अनेक प्रमाण दिये जा सकते हैं। यह हो सकता है कि जटासिंहनन्दी यापनीय न होकर कूर्चक-सम्प्रदाय से सम्बन्धित रहे हों और यह कूर्चक-सम्प्रदाय भी यापनीयों की भाँति श्वेताम्बरों के अति निकट रहा हो । यद्यपि इस सम्बन्ध में विस्तृत गवेषण अभी अपेक्षित है। _ (२) जटासिंहनन्दी यापनीय परम्परा से सम्बद्ध रहे हैं, इस सम्बन्ध में जो बाह्य साक्ष्य उपलब्ध हैं, उनमें प्रथम यह है कि कन्नड़ कवि जन्न ने जटासिंहनन्दी को 'काणूरगण' का बताया है। अनेक अभिलेखों से यह सिद्ध होता है कि यह काणूरगण प्रारम्भ में यापनीय परम्परा का एक गण था। इस गण का सर्वप्रथम उल्लेख सौदन्ती के ई. सन् दसवीं शती (९८०) के एक अभिलेख में मिलता है। इस अभिलेख में गण के साथ यापनीय संघ का भी स्पष्ट निर्देश है।१६ यह सम्भव है कि इस गण का अस्तित्व इसके पूर्व सातवीं-आठवीं शती में भी रहा हो। डॉ. उपाध्ये जन के इस अभिलेख को शंका की दृष्टि से देखते हैं। उनकी इस शंका के दो कारण हैं—एक तो यह कि गणों की उत्पत्ति और इतिहास के विषय में पर्याप्त जानकारी का अभाव है, दूसरे जटासिंहनन्दी जन्न के समकालीन भी नहीं हैं।१७ यह सत्य है कि दोनों में लगभग पाँच सौ वर्षों का अन्तराल है। किन्तु मात्र कालभेद के कारण जन्न का काल भ्रान्त हो, डा. उपाध्ये के इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy