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________________ जटासिंहनन्दी का 'वरांगचरित' और उसकी परम्परा मन्तव्य से हम सहमत नहीं हैं। यह ठीक है कि यापनीय परम्परा के काणूर आदि कुछ गणों का उल्लेख आगे चलकर मूलसंघ और कुन्दकुन्दान्वय के साथ भी हुआ है१८, किन्तु इससे उनका मूल में यापनीय होना अप्रमाणित नहीं हो जाता। काणूरगण के ही १२वीं शताब्दी तक के अभिलेखों में यापनीय संघ के उल्लेख उपलब्ध होते हैं (देखें : जैनशिलालेखसंग्रह, भाग ५, लेखक्रमांक १.७)। इसके अतिरिक्त स्वयं डॉ. उपाध्ये ने १२वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के कुछ शिलालेखों में काणूरगण के सिंहनन्दी के उल्लेख को स्वीकार किया है।९ यद्यपि इन लेखों में काणूरगण के इन सिंहनन्दी को कहीं मूलसंघ और कहीं कुन्दकुन्दान्वय का बताया गया है। लेकिन स्मरण रखना होगा कि यह लेख उस समय का है, जिस समय यापनीय गण भी अपने को मूलसंघ से जोड़ने लगे थे। पुनः इन लेखों में सिंहनन्दी का काणूरगण के आद्याचार्य के रूप में उल्लेख है। उनकी परम्परा में प्रभाचन्द्र, गुणचन्द्र, माघनन्दी प्रभाचन्द्र, अनन्तवीर्य, मुनिचन्द्र, प्रभाचंद आदि का उल्लेख है-यह लेख तो बहुत समय पश्चात् लिखा गया है। पुनः इन लेखों में भी प्रारम्भ में जटासिंहनन्दी आचार्य का उल्लेख है, वहाँ न तो मूलसंघ का उल्लेख है और न कुन्दकुन्दान्वय का। वहाँ मात्र काणूरगण का उल्लेख है। यह काणूरगण प्रारम्भ में यापनीय गण था। अतः, सिद्ध है कि जटासिंहनन्दी काणूरगण के आद्याचार्य रहे होंगे। इन शिलालेखों में सिंहनन्दी को गंगवंश का समुद्धारक कहा गया है। यदि गंगवंश का प्रारम्भ ई. सन् चतुर्थ शती माना जाता है, तो गंगवंश के संस्थापक सिंहनन्दी को जटासिंहनन्दी से भिन्न होना चाहिए । पुनः काणूरगण का अस्तित्व भी ई. सन् की ७वीं-८वीं शती के पूर्व ज्ञात नहीं होता है। सम्भावना यही है कि जटासिंहनन्दी काणूरगण के आद्याचार्य रहे होंगे और उनका गंगवंश पर अधिक प्रभाव रहा हो । अतः, आगे चलकर उन्हें गंगवंश का उद्धारक मान लिया गया हो तथा गंगवंश के उद्धार की कथा उनसे जोड़ दी गई हो। (३) जन्न ने अनन्तनाथपुराण में न केवल जटासिंहनन्दी का उल्लेख किया है, अपितु उनके साथ-साथ ही काणूरगण के इन्द्रनन्दी आचार्य का भी उल्लेख किया है। हम छेदपिण्ड शास्त्र की परम्परा की चर्चा करते समय अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध कर चुके हैं कि जटासिंहनन्दी के समकालीन या उनसे किंचित परवर्ती ये इन्द्रनन्दी रहे हैं,२१ जिनका उल्लेख शाकटायन आदि अनेक यापनीय आचार्यों ने किया है। जन ने जटासिंहनन्दी और इन्द्रनन्दी दोनों को काणूरगण का बताया है। इससे उनके कथन में अविश्वसनीयता जैसी कोई बात नहीं लगती है। (४) कोप्पल में पुरानी कन्नड़ में एक लेख भी उपलब्ध होता है, जिसके अनुसार जटासिंहनन्दी के चरण-चिह्नों को चाव्वय ने बनवाया था। इससे यह सिद्ध होता है कि जटासिंहनन्दी का समाधिमरण सम्भवतः कोप्पल में हुआ हो। पुनः डॉ. उपाध्ये ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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