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________________ ३७६ जैन साहित्य समारोह आत्मज्ञान होने पर कल्पना की अज्ञानता स्वयं नष्ट हो जाती है । धर्म अरूपी द्रव्य है और इसलिए उसका रूपी द्रव्य के साथ कोई स्नेहसंबंध नहीं होता । इसी प्रकार ज्ञानी जीव कभी अपर गुण या मिथ्या गुण के प्रति आस्थावन नहीं होता । वह शुद्ध आत्म निगम की कल्पना से परमभाव में मग्न रहता है और शुद्ध ज्ञान को अपनाता है । उपाध्याय यशो विजयजी सच्चे ईश्वर का स्थान घट में ही मानते हैं । यहाँ आत्मा साधना पर विशेष जोर दिया गया है । इसीलिए वे कहते हैं कि जब यह जीव राग आदि भावों का त्याग करके सहजगुणों को ढूंढ लेता है तब उसके घट ईश्वर या आत्मा प्रकट होती है । जिसे यह आत्म तत्त्व प्राप्त हो जाता है उसे " 'चिदानन्द आनन्द अवस्था कारण इस अनन्त आदि से मुक्त "" 1 का आनन्द मिल जाता है, अर्थात् जीव रमने लगता है । यह जीव संसार में भटक रह है । ज्यों बनता है त्यों ही परम पद के जान लेता है । हम जिस संसार को सब कुछ मान बैठे हैं वह तो एक धोखा है, मन के जाल की उलझन है और सारा खेल ही झूठ का है। ऐसा संसारी धूल ही हाथ में रहती सुख चन्द दिनों तक ही रहता है और अंत में है । इस प्रकार संसार में भूले हुए जीव को अन्त में संसार के कष्ट ही मिलते हैं । इसी भाव को रुपक में बांधते हुए कहते है कि इस मोहरूपी लगाम के जाल में यह मन फंस गया है । इसी में यह तुरंग रुपी आत्मा भटक गया है । जो इस में नहीं फसता है, वही मुनी है और उसे कोई दुःख नहीं होता । आदमी स्वयं का समीक्षक बनकर सबको जान सकता है, और निज दोषों को जान ने पर ही ज्ञान के रस को प्राप्त कर, उन्हें दूर कर सकता है । अहंकार सबसे बड़ा दूषण है, "पर द्रव्य" जैसे अहंकार को Jain Education International चित्त की अनन्त काल से ही जीव राग सार - तत्त्व को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014001
Book TitleJain Sahitya Samaroha Guchha 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1985
Total Pages413
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size17 MB
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