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________________ "समांधिशतक'-एक अध्ययन ३७५ करता है जहां कोई विकल्प नहीं होता। परमात्मा का यह नैकदय. निर्विकल्प, निर्भार बना देता है । भगवान के ध्यान में एक चित्त होने पर जोर देते हुए आचार्य कहते हैं कि, जो व्यत्ति परमात्मापद की प्राप्ति के लिए अपनी आत्मा में जितनी दृढ वासना अर्थात् चित्त की एकाग्रता रखता है ऐसे साधना से ऊसे उतनी ही जल्ही मुक्ति मिलती है। तुलना कवि उस से करता है जो एक ही गति एक ही ध्यान के कारण भ्रमरी बन जाती है। देह और आत्मा दोनों भिन्न हैं। ऐसे मेद विज्ञान को जो जान लेता है, वह अंतरात्मा के दर्शन करते हुए परमात्मभाव में स्थिर होता जाना है। इसी तथ्य को अधिक स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि, जो जीव, देह और आत्मा के भेद को समझे बिना [ज्ञान बिना तप किया करता मैं, उसके भावों का अंत नहीं होता। यहां ध्यान और क्रिया की समझ पर प्रकाश डाला गया है। जब यह जीव अपने ज्ञान से पुद्गल को जान लेता है तब वह आत्मा की ओर उन्मुख होता है। जब उन्नतशील होता हुआ यह जीव गुण के अहम् से भी मुक्त हो जाता है, तब वह आत्मा के सहज प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है । तात्पर्य यह है कि, ज्ञानी जब लौकिक मदमुक्त हो जाता है तब गर्व रहित बन जाता है। आचार्य संबोधन करते हैं कि धर्म के उपदेश से संन्यास प्रगट होता है, अर्थात् जब सम्पूर्ण जगत से मुक्त होकर ऊर्ध्वगाभी बनता है, तब लौकिक क्षमा आदि गुण भी जो पुण्य के उपाधयन है, वे भी नष्ट हो जाते हैं । तब हे जीव, तू इस कल्लित संसार से उदास क्यों नहीं होता' व्यक्ति का सही, वस्तु के प्रयक्ष दर्शन से कल्पना को भ्रम वैसे ही मिट जाता है, जैसे रस्सी के देखने पर रस्सी की हुई कल्पना दूर हो जाती है । उसी प्रकार सच्चा आत्मज्ञान होने से आत्मा के प्रति अवोधभाव मिट जाता है। वहां आचार्य यही कहना चाहते हैं कि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014001
Book TitleJain Sahitya Samaroha Guchha 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1985
Total Pages413
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size17 MB
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