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________________ 'समाधिशतक'-एक अध्ययन हम अपने में धारण कर लेते हैं । परिणामस्वरूप अपने गुणों की सुगन्ध से वंचित रह जाते हैं । ओर जब अहम् को ही हम अपना गुण मान लेते हैं तब हमारा दूसरे से संबंध छूट जाता है । अर्थात् अहम् के कारण आत्मदर्शन में बाधा उत्पन्न होती है । आत्मा का रूप तो लिंगधारी (संसारी) से बहुत ऊंचा है। वह अनामी, अरूपी है । आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए इससे ऊपर उठना आवश्यक है। इस आत्मा के गुण का अनुभव तभी हो सकता है जब इसका चिन्तवन देह से भिन्नत्व मानकर किया जाये। अन्यथा भ्रम और वासनाओं में भूलकर हम खिन्न या दुःखी होकर भटकते रहते हैं। हम जो चर्मचक्षुओं से देखते हैं वह चेतन नहीं है। चेतन दिखाई नहीं देता । वह तो अनुभव की चीज है। हे जीव ! तूं क्रोध या प्रेम किस से करता है ? यह सब तो अपने आप में ही क्षय हो जाने की चीजों हैं। तेरे सारे व्यापार देह के साथ हैं, जो झूठ हैं। संसारी त्याग या ग्रहण की बाह्य क्रियाओं में लगा हुआ है। जो सिद्ध पुरुष है अर्थात् जिसका अन्तरंग और बहिरंग एक है, उन्हें त्याग या मिलन कुछ नहीं होता है। जब यह मन आत्मज्ञान में लीन हो जाता है, तब काया के प्रति यह ममत्व छोड़ देता है । इस जीव को गुण अर्थात् आत्मसुख का अनुभव प्राप्त होता है । मुनिश्री संसारी और सिद्ध के भेद को बड़ी सरलता से समझाते हुए कहते हैं कि आरभ्भ अर्थात् सांसारिक क्रियाओं में योगी को दुःख प्राप्त होता है। उसे तो अन्तर और बाह्य का सुख तभी होता है जब वह इनको त्यागता है। जहां वास्तव में आंतरिक दुःख है, लेकिन योगसाधना में लीन जो बाहरी दुःख देख रहा है वास्तविक आन्तरिक सुख वही पा रहा है । व्यक्ति को वचन और कर्म में एकरूप होना चाहिए। हम जो कहें वही करें, और उसी में स्थिर हों। इस से हमारी अबोधता मिटती है और ज्ञान का सही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014001
Book TitleJain Sahitya Samaroha Guchha 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1985
Total Pages413
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size17 MB
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