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________________ 46 Homage to Vaisalt भवग उपनगर थे / वर्तमान बनिया बाणिय-गाम था। बासुकुण्ड को क्षत्रियकुण्डग्राम माना जा समता है। लेकिन प्रश्न है मुख्य नगरी कितनी दूर में पौ। बसाढ़ बस्ती और गढ़ मुख्य नगर में थे, इसमें सन्देह नहीं / वैशाली का विशाल नगर और दूर तक रहा होगा। उसमें नगर प्राकार और नगर-दार भी थे, किन्तु आज भूमि से ऊपर कोई चिह्न दिखाई नहीं देता, यद्यपि वैशाली के समकालीन श्रावस्ती (सहेट-महेट, जिला गोंडा) और कौशाम्बी (कोसम, जिला प्रयाग) के नगर-प्राकारों के ध्वंस अब भी दिखलाई पड़ते हैं। नगर-प्राकार का इस तरह लोप यही बतलाता है कि वैशाली पहले उजाड़ हो गयी। सातवीं शताब्दी के चीन-यात्री हेङ-चाङ के समय वैशाली बिलकल उजाड थी. और बौद्ध तीर्थ-स्थान भी इतने उजड़ गये थे. कि हङचाङ के वर्णन से भिन्न-भिन्न स्थानों का कोई ठीक से परिचय नहीं मिलता। ईसा की चौथी सदी में फाहियान का वर्णन अधिक स्पष्ट है और अधिक प्रामाणिक भी मालूम पड़ता है। तोरभुक्ति (तिरहुत) के उपरिक (गवर्नर) और कुमारामात्य (जिलाधोश) की मुद्राओं से सिद्ध होता है कि गुप्तकाल में उसका महत्त्व था। लेकिन साथ ही इन मोहरों से यह सिद्ध नहीं होता कि प्रजातंत्रीय वैशाली का वैभव तब तक अक्षुण्ण चला आया था। कोल्हुआ में जहाँ आज भी अशोक स्तम्भ खड़ा है, वहीं कूटागार-शाला थी। भगवान् बुद्ध वहाँ कई बार निवास कर चुके थे। यह कूटागार-शाला महावन के भीतर थी, जो कि हिमालय से समुद्र तक चले गये महावन का एक अंश था। जंगलों की इस अधिकता से यह भी मानना होगा कि मौर्य चन्द्रगुप्त कालीन पाटलिपुत्र की तरह वैशाली का नगर-प्राकार भी शालकाष्ठ का था। इसीलिए उसका पीछे तक बचा रहना सम्भव नहीं था। पालि ग्रन्थों से मालूम होता है कि वैशाली की चार दिशाओं में चार प्रसिद्ध चैत्य (उद्यानपुष्करिणी-सहित-देवस्थान) थे-पूर्व में उदयन-चैत्य, दक्षिण में गोतमक-चैत्य, पच्छिम में सप्ताम्रक-चैत्य और उत्तर में बहुपुत्रक-चत्य / वैशाली में अचेल कोर-मट्टक नामक एक बड़ा प्रभावशाली नागा रहता था। वैशाली के लोगों में उसका बड़ा सम्मान था। उसने सात प्रतिज्ञाएँ ले रखी थीं (1) सदा नंगा रहना, वस्त्र न धारण करना; (2) जीवन भर ब्रह्मचारी रहना; (3) मात-दाल न खा, केवल मांस खाना और सुरा पीना; (4) वैशाली में पूर्व की ओर उदयन चैत्य से आगे न जाना; (5) दक्षिण में गोतमक चैत्य से आगे न जाना; (6) पच्छिम में सप्ताम्रक चैत्य से आगे न जाना और (7) उत्तर में बहुपुत्रक चैत्य से आगे न जाना। ये चारों चैत्य, जान पड़ता है, वैशाली नगर के पूर्व, दक्षिण, पच्छिम और उत्तर के महाद्वारों * के बाहर थे। आज भी पूरब में कम्मन-छपरा के चौमुखी महादेव, उत्तर में बनिया के चौमुखी महादेव मौजूद हैं, जो क्रमशः उदयन और बहुपुत्रक चैत्य हो सकते हैं। फाहियान के अनुसार बुद्ध ने अन्तिम बार वैशाली के पश्चिमद्वार से बाहर निकल कर नागावलोकन किया था / यह स्थान सप्ताम्रक चैत्य के आसपास रहा होगा, जिसे बोधा के आसपास कहीं होना चाहिये / दक्षिण द्वार के बाहर गोमतक चैत्य था, जिसे परमानन्दपुर से कोसा के गुप्त महादेव के 1. दीघनिकाय, पाथिकसुत्त (पृष्ट 218)
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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