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________________ 47 बैशाली का प्रजातन्त्र दक्षिण तक ढूंढ़ना होगा। इस प्रकार हम पुरानी वैशाली के नगर-सीमान्त का कुछ अनुमान कर सकते हैं। इन प्रधान चैत्यों में अच्छा वृत्ति-बन्धान रहा होगा, यह बज्जी-धर्म के अनुसार उचित ही था। इन चार प्रधान चैत्यों के अतिरिक्त और भी कई चैत्य थे, जिनमें एक था चापाल चैत्य / यहीं पर बुद्ध ने ई० पू० 482 की माघ-पूर्णिमा के आस-पास कहा था"आज से तीन मास बाद तथागत का निर्वाण होगा।" फाहियान ने इसे नगर से 3 ली उत्तर-पच्छिम बतालाया है। अनुवादकों ने इस शब्द को धनुष बाण-त्याग बना दिया है, जो वस्तुतः चापाल (चाप रख देने) के चीनी भावान्तर का विकृत रूप है। यह स्थान भीमसेनका-पल्ला के आस-पास कहीं होना चाहिये / सारंदव-चैत्य भी वैशाली के पास था। यहीं पर बुद्ध ने लिच्छवियों को सात अपरिहाणिय (हानि से बचाने वाले) धर्मों का उपदेश किया था। यह स्थान कहाँ था, इसे नहीं कहा जा सकता / फाहियान ने इसके बारे में कुछ नहीं लिखा है / इनके अतिरिक्त वैशाली नगर के बाहर कितने ही और साधुओं के आराम थे, जिनमें तिदुकखाणु में परिव्राजकों का आराम और अवरपुर-वनसंड में भी एक आराम था-अवरपुरवनसंड नगर से पच्छिम में रहा होगा / बालुकाराम अशोक-स्तम्भ से पच्छिम में रहा होगा। यहीं द्वितीयसंगीति हुई थी। नगर के भीतर संस्थागार, कूटागारों और प्रासादों के अतिरिक्त एक महत्त्वपूर्ण वस्तु थी अभिषेक-पुष्करिणी, जिसमें संस्था के सदस्यों का अभिषेक कराया जाता था और उसमें किसी भी बाहरी आदमी का प्रवेश अत्यन्त निषिद्ध था। वज्जी के दूसरे नगर और गाँव पाटलिपुत्र से गंगापार हो कर बुद्ध कोटिग्राम पहुंचे थे। इसके अतिरिक्त उक्काचेल (उल्काचेल) नामक नगर भी गंगा के तट पर था। कोटिग्राम और उल्काचेल कहां थे, इसके बारे में इससे अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता कि वे सोनपुर, हाजीपुर के आस-पास में थे। गण्डक तो अवश्य ही उस समय सोनपुर से पच्छिम बहती थी। __ अपनी अन्तिम यात्रा में राजगृह से आते वक्त बुद्ध पाटलिपुत्र में गंगा पार हुए / गंगा पार हो वह कोटिग्राम पहुँचे थे। कोटिग्राम से अगला पड़ाव नादिका में पड़ा। नादिका एक अच्छा खासा नगर था, जो ज्ञातृका का अपभ्रंश मालूम होता है / ज्ञातृ के पाली में नाट और नात दोनों रूप मिलते हैं, जैसे ज्ञातृ-पुत्र का नाटपुत्त और नातपुत्त / नादिका का दूसरा उच्चारण नाटिका भी है। नाटिका में मिजकाववसथ नामक इंटों की बनी एक अच्छी अतिथिशाला थी। बुद्ध ने इसी में निवास किया था। इसी के पास गोसिंग शालवन नामक शालों का जंगल था / नादिका से बुद्ध अम्बपाली के बगीचे में पहुँचे थे। वंशाली की कीर्विमती रूपाजीवा अम्बपाली ने यहीं अपने आमों के बगीचे में बुद्ध को भोजन के लिए निमंत्रित किया था, और बुद्ध की स्वीकृति से इतनी उल्लसित हुई थी कि लौटते समय उसने वरुण
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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