SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 460
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विमलकीति : वैशाली की एक विस्तृत विभूति 415 की है। चीनी बौद्ध विद्वान् फा-हुंग ने भी 'विमलकीर्ति निर्देश सूत्र' की एक टीका लिखी है और वह आजीवन इस सूत्र का प्रचार करता रहा। सम्राट वू-ती ने उससे प्रभावित होकर एक बार उसको अपने राजमहल में बुलाकर सम्मानित भी किया था (प्रमुख भिक्षुओं के संस्मरण)। सुप्रसिद्ध चीनी तीर्थयात्री शुभआन-चाङ ने तचंग-उन नगर में 650 ई० में इस सूत्र का विज्ञापक गुणानुवाद किया। यह अनुवाद 6 खण्डों में विभक्त है और काफी लोकप्रिय है ('चीनी बौद्धधर्म का इतिहास', पृ० 149, तेशो-इस्सैक्यों, क्रम सं. 9.456, प्रमुख भिक्षुओं के संस्मरण)। इस सूत्र का सबसे पहला भोटीय अनुवाद नवम शताब्दी में आचार्य धर्मताशील (छोस-जिंद-त्शुलरिव्रम्स-छोपमिद छुटिल्टस) ने किया था। यह अनुवाद कन्जुर संग्रह में सुरक्षित है और सभी भोटीय संस्करणों (ल्हासा, नार्थग और देगें) में उपलब्ध है। इस सूत्र के चार भोटीय अनुवाद तुन-हुआङ् में मिले थे, जो अब पेरिस के राष्ट्रीय पुस्तकालय में सुरक्षित हैं / प्रख्यात जापानी बौद्ध विद्वान् जिस्यु ओशिका ने सभी मोटीय संस्करणों का तुलनात्मक अध्ययन करके रोमन लिपि में एक प्रामाणिक भोटीय संस्करण निकाला है / यह देगें की प्रति पर आधारित है। प्रसिद्ध जर्मन बौद्ध विद्वान् भिक्ष पासादिक ने सभी भोटीय अनुवादों का अध्ययन कर रोमन लिपि में एक भोटीय संस्करण प्रकाशित किया है, जो ल्हासा की प्रति पर आधारित है / पासादिक ने अपने भोटीय संस्करण का संस्कृत रूपान्तर भी किया है। अमेरिकी बौद्ध विद्वान् राबर्ट थर्मन ने भोटीय अनुवाद का अंग्रेजी अनुवाद किया है। 'विमलकीति निर्देश सूत्र' के जापानी अनुवादों में सबसे प्रख्यात और लोकप्रिय अनुवाद जापान के उपराजा शोतोकु का है। 592 ई० में शोतोकु ने 19 वर्षों की अवस्था में उपराजा (थोतोकु की चाची सुई राजा के पद पर थी) का कार्यभार सम्भाला और 'विमलकीर्ति निर्देश सूत्र' को पढ़कर इतना प्रभावित हुआ कि बौद्धधर्म को ही उसने जापान का राष्ट्रधर्म घोषित किया और विमलकीर्ति के आदर्शों को अपना जीवनादर्श बनाया। शोतोकु की टीका ने जापान के कुलीन परिवारों में बौद्धधर्म का प्रसार करने में असाधारण सफलता प्राप्त की। विमलकीर्ति के जीवन पर प्रकाश डालते हुए वह लिखता है-"विमलकीति एक पहुंचा हुआ सन्त था। उसका आध्यात्मिक जीवन राग, द्वेष की सीमा को पार कर चुका था। वैशाली महानगरी का वह समृद्ध सम्पन्न गृहस्थ था, किन्तु उसकी धन के प्रति कोई आसक्ति या ममता नहीं थी। उसके भीतर अपार करुणा थी, जिससे अनुप्राणित होकर वह गार्हस्थ्य जीवन में रहते हुए भी लोककल्याण की मंगलसाधना में संलग्न रहता था। प्रज्ञा उसकी माता थी, सर्वगुणसंग्रह उसका पिता था, सभी प्राणी उसके बन्धु थे और अनासक्ति उसकी वासभूमि थी। सन्तुष्टि उसकी स्त्री थी, करुणा उसकी पुत्री थी और सत्य उसका पुत्र था। इस प्रकार गृहस्थ-जीवन में रहते हुए भी वह सांसारिक बन्धनों से परे था। सांसारिक उलझनों से बचकर संन्यास लेने की अपेक्षा संसार में रहकर, उन बुराइयों को दूर करनेवाले साधक का जीवन उन्हें अधिक प्रिय था।"
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy