SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 295 वैशाली-दिग्दर्शन बुद-ठहरो महानाम ! इन्हें आने दो। (कोलाहल कम हो जाता है, बुद्ध के पास आते ही के चुप हो जाते हैं / ) बायो भाई, बैठो। अभय, यहाँ आओ, माणिक्य बैठो न / भद्र बैठ जाओ / (कुछ देर ठहर कर) महानाम ! अब बोलो क्या कह रहे थे तुम ? महानाम -मैं अचरज में पड़ गया है। ये लिच्छवि युवक जिनकी उच्छलता और उपद्रव से हम बड़े बूढ़े त्रस्त हैं, वे इस समय अपना उपाधिपूर्ण स्वभाव तज कर, धनुष बाण त्याग तपागत के निकट कितने शान्त और सौम्य बने बैठे हैं। यह अमिवाम के अनन्त प्रकाश का प्रभाव है। बुद्ध-महानाम, इनकी उच्छलता से त्रस्त मत होओ। ये लिच्छवि युवक तुम्हारी वैशाली नगरी के प्राण हैं। जानते हो क्यों ? एक बार मगष मंत्री वर्षकार ने मुझसे पूछा कि क्या अजातशत्रु लिच्छवियों को परास्त कर सकता है ? मैंने कहा कि लिच्छवि युवक तो काठ के तकिये लगाकर सोते हैं; परिश्रमी ओर उत्साही है, आलस्य का उनमें नाम नहीं है, कठोर जीवन के आदी हैं। जब तक उनमें ये गुण हैं, तब तक उनकी पराजय सम्भव नहीं, चाहे वे कितने उच्छङ्खल हों। महानाम -और भगवान् ! यहाँ की युवतियां ? वैशाली की युवतियां तो सागर की फेनिल लहरों की भांति नृत्य और आमोद-प्रमोद में पिरकती रहती हैं। बुद्ध-जिस युवती समाज की शिरोमणि अम्बापाली जैसा रत्न है, वह सम्मान का पात्र है। महा.-अम्बापाली ? गणिका ? (अम्बापाली का प्रवेश) अम्बा-हाँ, अम्बापाली गणिका / वैशाली की सौन्दर्य-महिषी, अम्बापाली / तयागत को मेरा प्रणाम स्वीकार हो / बुद्ध-आज तुम बहुत उल्लसित हो भन्ने ! . अम्बा-उल्लसित क्यों न होऊ भगवन् ! आज तथागत मेरे घर-अम्बापाली के आम्रकानन में पधारेंगे। आज मेरा गौरव सीमाहीन है। कल तथागत ने मेरा निमंत्रण स्वीकार किया, तो लौटते समय वैशाली के राजपथ पर चार पाँच गणराजों के रथों से मेरा रथ अटक गया। मैंने सारथी से कहा-"रथ आगे बढ़ाओ।" गणराजन् बोले -"गणिका की इतनी स्पर्धा / " मैंने जबाब दिया-"हां, जिसके यहाँ तथागत पधारेंगे, उसका रथ पवन की होड़ लेगा।" वे अहंकार से हंसे और बोले, "तथागत और गणिका के यहाँ ! उन्हें आमंत्रित करने तो हम जा रहे हैं।" बुद्ध-भद्रे, वे गणराजन मेरे पास आये थे। १०-(चिन्तित स्वर) भगवन् ! मेरे निमंत्रण को ठुकरा कर कहीं आप उनके यहाँ तो न जाइयेगा? बुद्ध-नहीं, भद्रे ! तथागत वचनबद्ध हैं / मैंने उनका निमंत्रण अस्वीकार कर दिया।
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy