SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 293 वैशाली-दिग्दर्शन चे.-आर्यमहालि, आप सबके साथ संस्थागार चलें / मैं अभी आता हूं, (जयध्वनि / वासव ! तुम किस मार्ग से आये? मा०-उत्तर पब से। पहले कुण्डग्राम गया। सोचा, शायद आप वहाँ हों। चे०-कुण्डग्राम में बहन त्रिशला के पास में बहुत दिनों से नहीं गया हूँ। वा० - तब तो आपको एक नूतन समाचार न मालूम होगा? चे० - क्या ? वा०-आपकी बहन त्रिशला के बाब ही एक पुत्र उत्पन्न हुआ है। चे-सच ? "विश्वला का पुत्र शुभ घड़ी में आया, जब सारी वैशाली में वीर भाव छाया हुआ है / जानते हो वासव | मैं उसका क्या नाम रखूगा ?....."महावीर ! .. वा०-महावीर ? चे०-हाँ ! लिच्छविपुत्र महावीर / उसके हाथों सारे भूखण्ड में वैशाली का प्रताप फैलेगा / महावीर वर्धमान / (वाद्यसंगीत जो धीरे धीरे मंद हो जाता है / पठ परिवर्तन / ) ग्रामीण-पथिक, तो क्या सच ही इस महावीर ने अपने भुजबल और वीरता से सारे भूखण्ड को वैशाली के अधीन कर दिया। पथिक-हां, लेकिन भुजबल से नहीं, आत्मबल से। ये ही वे महावीर स्वामी थे जिनके द्वारा बढ़ाये गये जैनधर्म को आज दिन भी भारतवर्ष में हजारों स्त्री पुरुष मानते हैं। ये जैनों के २४वें तीर्थकर माने जाते हैं। इन्होंने श्री पाश्वनाथ के मत को अपनाकर उसे परिष्कृत रूप दिया / तुम्हारे इस गांव से सटा जो बासुकुण्ड गाँव है, वही तब कुण्डग्राम कहलाता था और यहीं उनका जन्म हुआ। तीस वर्षों तक सांसारिक जीवन बिता कर फिर वह श्रमण बनकर निकल पड़े। सारा वज्जी और मगध प्रदेश उनके उपदेशों से अनुप्राणित हो चला। लेकिन वैशालो को वे न भूले और बहुत बार वे वर्षावास करने कुण्डग्राम भी आये। उस समय वैशाली के प्रमुख और समृद्धिशाली व्यक्ति उनके शिष्य थे --सेनापति सिंह, श्रेष्ठि आमन्दगाथापति, इत्यादि। जब मैं वासुकुण्ड को देखता हूँ तो मुझे ऐसा आभास होता है, मानो अब भी उनके शिष्य उनके चरणों में बैठे हैं और उनके उपदेशामृत का पान कर रहे हैं। (संगीत ध्वनि, पट परिवर्तन) महावीर वर्धमान सेनापति सिंह, आज कल तुम बहुत व्यस्त रहते हो। सिंह हे निगण्ठनातपुत्त, मैं कितना भी व्यस्त रहूँ, आपके उपदेश मुझे चिन्ता से मुक्त करते रहेंगे। महा०-सेनापति सिंह, सुनो! मैं नहीं, तुम्हारी आन्तरिक शक्ति ही तुम्हें मुक्त करेगी। जीव स्वावलम्बी और स्वतन्त्र है। वह अनन्त चतुष्टय से परिपूर्ण है और अनन्त सामर्थ्यवान् है / परन्तु वह अपनी इस अनन्त सामर्थ्य को स्वयं ही नहीं पहचानता।
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy