SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नावमा एवं सफलता कीनामा 165 आचार्यपद से मुक्ति भावनगर में सन् १९८० से १९८६ तक मैं प्राचार्य पद पर रहा। लेकिन स्वास्थ्य की प्रतिकूलता और अहमदाबाद की कुछ विशेष जिम्मेदारियों से मैंने अपने संचालक मंडल से आचार्य पद से निवृत्त होने का बारबार निवेदन किया। वे मुझे छोड़ना नहीं चाहते ते। उन्होंने एक शर्त रक्खी कि आप एक अच्छा प्रिन्सीपाल ले आईये और मुक्त हो जाईये। मैं भी प्रयत्न में रहा और सावरकुंडला से वहाँ के प्रा. श्री गंभीरसिंहजी गोहिल को यहाँ पदभार संभालने को राजी करके लाया। मुझे प्रसन्नता इस बात की थी कि यह पद मैंने अपनी राजी खुशी से त्यागा था। आचार्य पद के दौरान मेरा व्यवहार अध्यापक खंड के साथ वैसा ही मधुर रहा जैसा प्राचार्य पद से । पूर्व था। अतः पुनः प्राध्यापक के रूप में अपने अध्यापक खंड में आ गया। यद्यपि गोहिल साहब प्राचार्य बने परंतु मुझे सदैव पूर्व प्राचार्य के ही भाव से सन्मान देते रहे। भावनगर से अहमदाबाद पुनरागमन सन् १९८८ में भावनगर युनिवर्सिटी में हिन्दी विभाग का प्रारंभ हुआ। एक प्राध्यापक और एक व्याख्याता का स्थान मंजूर हुआ। डॉ. सुदर्शनसिंह मजीठिया जो शामलदास कॉलेज के प्राचार्य थे, उनकी बड़ी इच्छा थी कि वे युनिवर्सिटी में प्रथम अध्यापक और अध्यक्ष बने। मैंने भी उन्हें सहयोग दिया और वे इस स्थान के लिए चुन लिये गये। मुझे भी दूसरे स्थान के लिए चुन लिया गया। मुझे जून से यह पदभार संभालना था। तत्कालीन कुलपति श्री डॉलरभाई वसावडा से मेरे अच्छे संबंध होने से उन्होंने यह वचन दिया कि तीन वर्ष बाद मजीठियाजी के रिटायर्ड होने पर आपको यह पद प्राप्त होगा। इसी दौरान कच्छ में एक जैन साहित्य संगोष्ठी का आयोजन श्री महावीर जैन विद्यालय मुंबई की ओर से । आयोजित था। मैं उसमें अपना शोधपत्र प्रस्तुत करने गया था। लौटकर अहमदाबाद आने पर मुझे भावनगर से । पत्नी ने फोन पर बताया कि अहमदाबाद की लॉ सोसायटी की कॉलेज में कोई इन्टरव्यू है। यद्यपि सन् १९६३ । से १९८८ तक मैं प्रायः अहमदाबाद से बाहर ही सेवाकार्य में रहा। परंतु सदैव अहमदाबाद आने का प्रयास करता रहा। यहाँ इन्टरव्यू हुआ। इन्टरव्यू लेने वाले थे डॉ. रघुवीर चौधरी और डॉ. चंद्रकांत महेता जो इसमें एक्सपर्ट थे, उन्होंने मुझे देखते ही आश्चर्य व्यक्त किया कि और कहा कि- 'हम इनका क्या इन्टरव्यू लेगें, इनका इस संस्था में जुड़ना ही गौरव की बात है। मेरी पसंदगी हो गई। परंतु मैं स्वयं दुविधा में था कि युनिवर्सिटी का पद छोड़कर कॉलेज में- वह भी ऐसी कॉलेज में जहाँ डिपार्टमेन्ट नहीं है। वहाँ रहूँ या न रहूँ। यह पद का मोह था। तभी मेरे बुजुर्ग मित्र डॉ. सुरेश झवेरी जो पुराने समय के लंदन से एम.आर.सी.पी. डॉक्टर थे जिन्होंने वर्षों से मात्र हिंसक दवाओं के परहेज के कारण हजारों रूपयों की प्रैक्टिस छोड़कर आयुर्वेदिक पद्धति द्वारा ही चिकित्सा की। जो गौवंश वध को रोकने, शाकाहार के प्रचार और मांसाहार के विरोध में आजीवन लड़ते रहे। उन्हें मैंने अपनी दुविधा वताई और उँचा पद छोड़कर नीचे पद पर आने की बात कही। तब उन्होंने कहा 'देखो सबसे बड़ा पद तो परमात्म पद होता है। छोटे-मोटे सांसारिक पदों की चिंता मत करो। यहाँ आ जाओ मुझे भी । तुम्हारा सहयोग मिलेगा।' मैंने उनकी आज्ञा का पालन करते हुए गुजरात लॉ सोसायटी संचालित श्रीमती । सद्गुणा सी.यु.आर्ट्स महिला कॉलेज में प्राध्यापक का पद्भार सम्हाला। मुझे गुजरात सरकार की नीति के ! कारण कोई आर्थिक नुकशान नहीं हुआ। उल्टे छह सातसौ रू. अधिक ही मिले। दूसरे दिन भावनगर जाकर जब मैंने एकाएक त्यागपत्र दिया तो सभी मित्र, प्राध्यापक सन्नाटे में आ गये। वे इसे मज़ाक समझते रहे लेकिन मैं १६ ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy