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________________ स्मृति → सन्तोष, दिल्ली परम विदूषी मृगातवी जी, कैसी जन कल्याणी थी। मरूघर में बहती हो सरिता, ऐसी उनकी वाणी थी। तप संयम की देवी थी वह, मानवता की मूरत थी। मन्दिर की प्रतिभा हो जैसे, ऐसी दिलकश सूरत थी। नयनों से था नेह छलकता, सहज ही मन को छू जाए। दर्श करे इक बार जो प्राणी, बस फिर उनका हो जाए। युग-युग धरती तप करती है, ऐसी कली तब खिलती है। .. मधुबन जिससे महक है उठता, शीतल छाया मिलती है। कैसे करूं गुणगान तुम्हारा, शब्दों की बारात नहीं। सागर को बाहों में भरना, मेरे बस की बात नहीं। ___कांगड़ा तीर्थधाम बना था, जब तूने उद्धार किया। .. लहरा में लहराया झण्डा, जब तूने उपकार किया ।। : पंजाब की धरती पर विचरी थी, गुरु का वचन निभाने को। वल्लभ की फिर याद दिलाने, वल्लभ के दीवाने को ।। मान मिला सम्मान मिला बहु, फिर भी मान नहीं आया। ___फूलों से झुक जाती डाली, कुछ ऐसा मन को भाया ।। गुरु भक्ति के रंग में रंगी, उनकी परम आराधक थी। होम दिया था जिसने जीवन, ऐसी अदभुत साधक थी। वल्लभ ज्योति जग में फैले, शुचि ऐसी अभिलाषा से। स्मारक की भी नींव थी रखी, कितनी ऊंची आशा से ।। पूर्व की किरणों ने जग को, सदा दिया उजिराया है। तूने भी यह रीत निभा कर, देश का रूप निखारा है।। तेरे श्रम से दिल्ली को भी, तीर्थ का वरदान मिला। स्मारक पे जिन ध्वज लहरा, और श्री संघ को सम्मान मिला। ज़र्रा ज़र्रा इस धरती का, तेरे गीत सदा सुनाएगा। वल्लभ के संघ तेरा भी. अब नाम अमर हो जाएगा। | મહત્તરા શ્રી મગાવતીશ્રીજી १६८
SR No.012083
Book TitleMahattara Shree Mrugavatishreeji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanlal C Shah and Others
PublisherVallabhsuri Smarak Nidhi
Publication Year1989
Total Pages198
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size5 MB
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