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________________ विषय खंड अंग विज्जा १६७ आरम्भ के अध्यायों में अंगविद्या की उत्पत्ति, स्वरूप, शिप्य के गुण-दोष, अंगविद्या का माहात्म्य आदि प्रास्ताविक विषयों का विवेचन है । पहले अध्याय में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साध- इन्हें नमस्कार किया है। इस विद्या का उपदेश महापुरुष ने किया था और ये भगवान महावीर ही ज्ञात होते हैं । निमित्तों के आठ प्रकार हैं - अंग, स्वर, लक्षण, व्यञ्जन अर्थात् तिल आदि चिह्न, स्वप्न, छींक, भौम [पृथ्वी सम्बन्धी निमित्त] और अन्तरिक्ष । इन निमित्तों में अंग का विशेष महत्व है । यह विद्या बारहवें अंग दिट्टिवाय के अंतर्गत मानी जाती थी जिसका भद्रबाहु के शिष्य स्थूलभद्र के समय से लोप हो गया। उसके बाद ग्रन्थ के साठ अध्यायों के नामों की सूची दी गई है । दूसरे अध्याय में जिन भगवान् की स्तुति है । अध्याय तीसरे से पांचवें में शिष्य के चुनाव और शिक्षण के नियम बताये गये हैं । ब्रह्मचर्यपूर्वक गुरुकुल में वास करने वाले श्रद्धालु शिष्य को ही इस शास्त्र का उपदेश करना चाहिए । चौथे अध्याय में अंगविद्या की प्रशंसा की गई है। लेखक के अनुसार अंगविद्या के द्वारा जय-पराजय, आरोग्य, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, सुभिक्ष-दुर्भिक्ष, अनावृष्टि-सुवृष्टि, धनहानि, कालपरिमाण आदि वातों का ज्ञान हो सकता है । आठवां भूमिकर्म नामक अध्याय ३० पटलों में विभक्त है और उनमें महत्त्व की सामग्री है। ___ आसनों का उल्लेख करते हुए उनके कई प्रकार बताये गये हैं, जैसे सस्ते (समग्ध ) महँगे (महग्ध) और औसत मूल्य के [ तुल्लग्ध ], टिकाऊ रूप से एक स्थान में जमाए हुए [एकट्ठान], इच्छानुसार कहीं भी रखे जाने वाले [चलित], दुर्बल और बली अर्थात् सुकुमार बने हुए या बहुत भारी या संगीन । आसनों के भेद गिनाते हुए कहां है - पर्यंक, फलक, काष्ठ, पीढिका या पीढिया, आसन्दक या कुर्सी, फलकी, भिसी या बृसी अर्थात् चटाई, चिंफलक या वस्त्र विशेष का बना हुआ आसन, मंचक या माँचा, मसूरक अर्थात् कपडे या चमड़े का चपटा गोल आसन, भद्रासन अर्थात् पायेदार चौकी जिसमें पीठ भी लगी होती थी, पीढग या पीढा, काष्ठ खोड या लकड़ी का बना हुआ बड़ा पेटीनुमा आसन । इसके अतिरिक्त पुष्प फल, बीज, शाखा, भूमि, तृण, लोहा, हाथीदांत से बने आसनों का भी उल्लेख है। उत्पल का अर्थ संभवतः पद्मासन था । एक विशेष प्रकार के आसन को नहट्टिका लिखा है, जिसका अभिप्राय गेंडे, हाथी आदि के नख की हड्डियों से बनाया जाने वाला आसन था [पृष्ठ १५] | पृष्ठ १७ पर पुनः आसनों की एक सूची है, जिसमें आस्तरक या चादर, प्रवेणी या बिछावन और कम्बल के उल्लेख के अतिरिक्त खवा, फलकी, डिप्फर [अर्थ अज्ञात ], खेड्डु खंड [संभवतः क्रीडा या खेल तमाशे के समय काम में आने वाला आसन ], समंथणी [अर्थ अक्षात] आदि का उल्लेख है। कुशाणकालीन मूर्तियों में जो मथुरा से प्राप्त हुई हैं उनमें यक्ष, कुवेर, या साधु आदि अपनी टांग या पेट के चारों ओर वस्त्र बांधकर बैठे हुए दिखाए जाते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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