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________________ अंग विज्जा लेखकः-डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल जैन साहित्य में अंगविज्जा नामक एक प्राचीन ग्रन्थ है। यह लगभग कुशाणगुप्त युग के संधिकाल का ज्ञात होता है, किन्तु अभी तक कहीं प्रकाशित नहीं हुआ। प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, नई दिल्ली की ओर से अब यह मूल्यवान् संग्रह ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है, जिसका सम्पादन मुनि श्री पुण्यविजयजी ने किया है। __अंगविद्या प्राचीनकाल की एक लोक - प्रचलित विद्या थी। शरीर के लक्षणों से अथवा अन्य प्रकार के निमित्त वा चिह्नों से किसी के लिए शुभाशुभ फल का कथन इस विद्या का विषय था। पाणिनि ने ऋगयनादि गण में ४. ३. ७३ अंगविद्या, उत्पात, उत्पाद, संवत्सर, मुहूर्त, निमित्त आदि विषयों पर लिखे जाने वाले व्याख्यान - ग्रन्थों का उल्लेख किया है। ब्रह्मजाल सुत्त में निमित्त, उप्पाद और अंगविज्जा के अध्ययन को भिक्षुओं के लिए वर्जित माना है (दीर्घनिकाय)। किन्तु यह अंगविद्या थी, इसके बताने वाला एक मात्र प्राचीन ग्रन्थ यही जैन साहित्य में "अंगविज्जा" नाम से बच गया है, जिसकी गणना आगम साहित्य के प्रकीर्णक ग्रन्थों में की जाती है। इसमें कहा है कि दृष्टिवाद नामक बारह वे अंग में अर्हत् वर्धमान महावीर ने निमित्त ज्ञान बताने वाले इस विषय का उपदेश किया था । अंग, स्वर, लक्षण, व्यंजन, स्वप्न, छींक, भौम, अंतरिक्ष इस प्रकार निमित्त कथन के ये आठ आधार माने जाते थे। इन महानिमित्तों से अतीत और अनागत के भाव जानने का प्रयत्न किया जाता था। इनमें भी अंगविद्या सब निमित्तों में श्रेष्ठ समझी जाती थी। जैसे सूर्य सब रूपों को साफ दिखा देता है, ऐसे ही अंग से अन्य सब निमित्तों के बारे में बताया जा सकता है । ___ यहां इस ग्रन्थ के अंगशान के विषय में लिखने का उद्देश्य नहीं है, वरन् इसमें जो ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व की, शब्दावली है उसकी कुछ सूचियों की ओर ध्यान दिलाना उद्दिष्ट है । इस ग्रन्थ में तत्कालीन जीवन के अनेक क्षेत्रों से सम्बन्धित लम्बी-लम्बी शब्दसूचियां उपलब्ध होती हैं । ये सूचियां बौद्ध ग्रन्थ महाव्युत्पत्ति की सूचियों के समान अति महत्वपूर्ण हैं । इन दोनों ग्रन्थों का तुलनात्मक दृष्टि से सांस्कृतिक अध्ययन आवश्यक है । प्रन्थ में कुल साठ अध्याय हैं । कहीं-कहीं लम्बे अध्यायों में पटल नामक अवान्तर विभाग हैं, जैसे आठवें अध्याय में विविध विषय संबंधी तीस पटल और नौवे अध्याय में १८६८ कारिकाएं हैं जिनमें २७० विविध विषयों का निरुपण है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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