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________________ १६८ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध उसे उस समय की भाषा में पल्हत्थिया या पलौथी कहते थे। ये दो प्रकार की होती थीं । समग्र पल्हत्थिया या पुरी पलथी और अर्ध पलूत्थिया या आधी पलथी । आधी पलथी दक्षिण और वाम अर्थात् दाहिना पैर या बायां पैर मोड़ने से दो प्रकार की होती थीं। मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित सी ३ संख्यक कुबेर की विशिष्ट मूर्ति वाम अर्ध पल्हत्थिया आसन में बैठी हुई है। पलथी लगाने के लिए साटक, बाहुपट्ट, चर्मपट्ट, वल्कल पट्ट, सूत्र, रज्जु आदि से बंधन बांधा जाता था। मध्य कालीन कायबन्धन या पटकों की भांति ये पल्लत्थिकापट्ट रंगीन, चित्रित अथवा सुवर्णरत्नमणिमुक्ताखचित भी बनाए जाते थे [पृ. १९] । केवल बाहुओं को टांगों के चारों ओर लपेटकर भी बाहुपल्लत्थिका नामक आसन लगाया जाता था । नवमें पटल में अपस्सय या अपाश्रय का वर्णन है। इस शब्द का अर्थ आश्रम या आधार स्वरूप वस्तुओं से है। शय्या, आसन, यान, कुड्य, द्वार, खम, वृक्ष आदि अपाश्रयों का वर्णन किया गया है । इसी प्रकरण में कई आसनों के नाम हैं, जैसे आसंदक, भद्रपीठ, डिप्फर, फलकी, बृसी, काष्ठमय पीदा, तृणपीदा, मिट्टी का पीढा, छगणपीढ़ग (गोवर से लिपा - पुता पीढ़ा ) । कहा है कि शयन - आसन, पल्लंक, मंच, मासालक [ अज्ञात 1. मंचिका. खटवा. सेज-ये शयनसम्बन्धी अपाश्रय हैं। ऐसे ही सीया. आसंदणा, जाणक, धोलि, गल्लिका [मुंडा गाड़ी के लिए राजस्थानी में प्रचलित शब्द गल्ली], सग्गड़, सगड़ी नामक यानसम्बन्धी अपाश्रय हैं । किडिका [खिडकी], दारुकपाट [दरवाजा ], ह्रस्वावरण [छोटा पल्ला ], लिपी हुई भींत, बिना लिपी हुई भींत, वस्त्र की भींत या पर्दा (चेलिम कुड्डु), फलकमय कुड्य [लकड़ी के तख्तों से बनी हुई भींत] अथवा जिसके केवल पार्श्व में तखते लगे हों और अन्दर गारे आदि का काम हो- (फलक पासित कुडु) ये भीतसम्बन्धी अपाश्रय हैं। पत्थर का खम्भा (पाहाणखम), धन्नी (गृहस्य धारिणी धरणी), प्लक्ष का खंभ (पिलक्खक थंम), नाव का गुनरखा (णावाखम्भ), छायाखम्भ, झाडफानूस ( दीवरुक्ख या दीपवृक्ष), यष्टि ( लट्ठि) उदकयष्टि (दगलट्टि) ये स्तम्भसम्बन्धी अपाश्रय हैं । पिटार (पडल,) कोथली (कोत्थकापल,) मंजूषा, काष्ठभाजना ये भाजनसम्बन्धी अपाश्रय हैं (पृ. २९)। ____ इसी प्रकरण में कई प्रकार की कुड्या या दिवारों का उल्लेख आया है। जैसे रगड़कर चिकनी दिवार (म), चित्रयुक्त भित्ति (चित्त), चटाई से (कडिल ), या फूस से बनी हुई दीवार (तण कुड्ड), या सरकंडे आदि की तीलिओं से बनी हुई दीवार (कणगपासित) जिसके पार्श्वभाग में कणग-या तीलियाँ लगी हुई हों । किन्तु इस प्रकार की भीते अच्छी नहीं समझी जाती थीं । मृष्ट, शुद्ध और दृढ़ दीवारों को प्रशस्त माना जाता था । घृत, तेल रखने की बड़ी गोल केला=कयला=अलिजर, मणि-मुक्त्ता -हिरण्यमंजूषा, वस्नमंजूषा, दधि, दुग्ध, गुड़, लवण आदि रखने के अनेक पात्र-ये सब नाना प्रकार के अपाश्रयों के भेद कहे गये हैं (पृ० ३०)। स्थित नामक दसमें पटल में अट्ठाईस प्रकार से खड़े रहने के भेद कहे गये हैं -आसन, शयन, यान, वस्त्र, आभूषण, पुष्प, फल, मूल, चतुष्पद, मनुष्य, उदक, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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