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________________ प्रस्तावना - दीर्घ, रेफ, बिन्दु आदि ऊड़ जाना । यह सब होने पर भी संशोधक सावधान वक्ष हो तो प्रन्थको अधिक विशुद्ध कर सकता है। और इतनी त्वरा करनी अनुचित है, जिससे ग्रन्थ अत्यन्त अशुद्ध भद्दा बन जाय । जिस ग्रन्थको महान् चिरस्थायी बनाना है, जगत्के विद्वानोंके समक्ष रखना है, देश-विदेशोंमें भेजना है-ऐसे महत्त्वके ग्रन्थके लिए अधिक दक्षतासे, पूरी सावधानतासे, समुचित संशोधन करना चाहीए-पैसा नहि हो सका-इसका हमे अत्यन्त खेद होता है। संस्कृत लेखोंमें ही अशुद्धियां है, और भाषाके लेखोंमें नहि है-ऐसा नहि है। हमारे हिन्दी, गूजराती लेख उसमेसे बच गये है-ऐसा भी नहि है। ह्रस्व-दीर्घकी, वर्ण-व्यत्ययकी, पदच्छेद, पद-योजना करनेकी और अन्य प्रकारकी अशुद्धियां इधर-उधर दृष्टि-गोचर होती हैं। पृ. २३९ में जहां 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' लेखका मङ्गलाचरण छपना चाहीए, वहां लेखके नाम उपर बड़े टाइपोमें लेखका मुख्यनाम हो इस तरहसे छपा है, और वहां 'ॐ नमो' करके छपा है, और 'सिद्धे' अलग, और 'भ्यः' पदच्छेद करके अलग छपा है। ग्रन्थ-नायक सूरिजीका पूर्व-नाम रामरत्न प्रसिद्ध है, उसके बदलेमें वहांरातरत्न छपा है।बेचरदास नाम चाहीए, वहां बेचारदास, पट्टावलीकी जगह पट्टावली, परिपाटीकी जगह परिपाठी, महाकविकी जगह मकाकवि, मनुस्मृतिकी जगह भनुस्मृति, बालभारतकी जगह बालमारत, चिन्तामणिकी जगह चित्रामणि, अर्धमागधीकी जगह अर्थमागधी, और अर्धमार्गधी, नयचन्द्रकी जगह नथचन्द्र, बनासकांठाकी जगह बनासकांटा, सरस्वतीकी जगह सरश्वती, पञ्चमाङ्गकी जगह पन्चमांग, श्रद्धाञ्जलिकी जगह श्रद्धाञ्जलि, पुञ्जकी जगह पुण्ज, अध्यक्षताकी जगह अक्षध्यता, अट्ठाईकी जगह अट्ठाई, सैद्धान्तिक की जगह सौधान्तिक, बहुश्रुतकी जगह बहुश्रूत, बहुथुति, बहुश्रुत, स्थविरावलीकी जगह स्थिरावली, शताब्दीकी जगह सताब्धि, षोडशाक्षरीकी जगह शोडषाक्षरी, नेमिनाथचतुष्पदिकाकी जगह नेभिमान-चतुस्पदिका, आत्मोद्धारकी जगह आत्मोद्वार, क्रियोद्धार की जगह क्रियोद्वार, सदुपयोगको जगह सप्रयोग छपा है । स्थूलदृष्टिसे अवलोकन करनेवाले संस्कृतश सुशको भी यह शल्यकी तरह खटकता है । दिग्दर्शनरूप यह दिखलाया है । थोडे और नमूने भी देखे-अक्षरशः की जगह अक्षरक्षः, स्वस्ति के बदले स्वास्ती, वचनातिशय के बदले वशनातिशय, उपास्यके बदले उपाष्य, विमुच्य के बदले विमुध्य, आलोच्य के बदले आळोच, विश्वकी जगह विश्य, स्रष्टाकी जगह सृष्टा, सर्जनकी जगह सृजन, शुश्रूषाकी जगह सुश्रषा, विद्वान् की जगह द्विवान्, विद्यान, व्रणकी जगह घृण, कणकी जगह रूण, मुक्तकी जगह मूवत, शुभकी जगह शूभ, पुण्यकी जगह पूण्य, पूण्यवंत, पुन्यशाली, मुख्यके बदले मूख्य, मूख्यता, मुखके बदले मूख, मूत्रकी जगह सुत्र, कल्पसुत्र, पूर्वकी जगह पुर्व, प्रचुर की जगह प्रचूर, राहुकी जगह राहू, वीतरागकी जगह वितराग, सूरिकी जगह सुरि, सूरीश्वर की जगह सूरिश्वर, मुनीन्द्रकी जगह मुनिन्द्र, अवटंक की जगह अघटंक, सुवर्ण की जगह सूवर्ण छपा है । अपरिग्रहकी जगह अपरिगृह, तथा निःस्पृही की गह निश्पृहि, गृहस्थकी जगह गृस्हथी, गीष्पतिकी जगह गीपति, समृद्धिकी जगह स्मृधि, जितेन्द्रियकी जगह जितेन्द्रीय, माहात्म्यकी जगह महात्म्य, ध्वंसितकी जगह वंशित, प्रशंसा की जगह प्रसंशा, सूक्ष्म की जगह सुक्ष्म, चूलिका की जगह चुलिका, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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