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________________ १० श्रीयतीन्द्रसूरि - भभिनन्दन ग्रन्थ दुर्लक्षकी जगह दुर्लक्ष, दुराचारी की जगह दूराचारी, बिन्दु की जगह बींदु, दृष्टिके बदले दृष्टि, दृष्टिपथ, अवश्यकी जगह अद्रश्य, विस्मितकी जगह विश्मित, व्रतकी जगह वृत, वृत्तिकी जगह वृती, जरासन्धकी जगह जरालिन्ध, तिर्यच की जगह तिथेच, अर्बुदकी जगह अबुर्द, भ्रक्षणकी जगह मुक्षर्णे, गुणकी जगह गुहा, खेमङ्करीकी जगह एमङ्करी, शास्त्रकी जगह शास्त्र, मातृष्वलाकी जगह मातृश्वसा, पितृष्वसाकी जगह पितृश्वसा, नमामि की जगह नमाभि, कामिनीकी जगह कामीनी, स्थूलकी जगह स्थूल, पूज्यकी जगह पुज्य, हीरककी जगह हरिक, अष्टापदकी जगह अस्टापद, astraenी जगह नंदीस्वर, पिपासुकी जगह पीयासु, बूद्धिकी जगह बुद्धि, बुध्दिशाली, शुद्धकी जगह शुध्द, मूर्तिकी जगह मुर्ति, लघुकी जगह लुघु, वैशाखकी जगह वैसाख, स्पर्शकी जगह स्पर्ष, तन्दुलकी जगह तन्दूल, जिनचंद्र की जगह जितचंद, धम्मोकी जगह घम्मो, कुकर्मकी जगह कुकर्म, शिलाभित्तिकी जगह शिलामिन्ति, पौषधोपवासकी जगह पौलधोपवास, श्वशुरालयकी जगह श्वसुरालय, वेष्टितकी जगह वेष्ठित, भण्डारकी जगह भन्डार, शार्दूलकी जगह शार्दुल, भुजंगप्रयातकी जगह भु० प्रपात, स्याद्वादकी जगह स्वद्वाद, - स्यायद्वाद, प्रव्रज्याकी जगह प्रवृज्या, शिथिलाचारीकी जगह सीधीलाचारी, नरमेधकी जगह नरमेध, अश्वमेधकी जगह अश्वमेघ, मरुधरकी जगह मरुघर, चेदिकी जगह चेटि, धंधूकीयाकी जगह धुंधकिया, र्भत्स्नाकी जगह भर्तस्ना, तद्विजयोपाय की जगह ० पाप, फाल्गुन मास की • जगह मांस, रजतमाषककी जगह रजकमाषक, अभिशापकी जगह अभिशाय, उल्लापकी जगह गभस्तिभिः चाहीए वहाँ गभस्तिभिः, काष्ठ की जगह काष्ट, विनष्टकी जगह विनष्ट, प्रतिष्ठाकी जगह प्रतिष्टा, उत्कृष्टकी जगह उत्कृष्ठ छपा है। तथा निश्चित को निश्चित्, - निष्णातको निष्णात् विख्यातको विख्यात् प्रवचन को प्रवचन, दर्शन को दर्शन, वर्तमानको वर्तमान, विद्यमान को विद्यमान, सम्मान को सम्मान इस तरहसे अकारान्त के बदले व्यञ्जनान्त छपा है, उनको संस्कृतज्ञ विशेषज्ञ शुद्ध नहि समझते हैं। विस्तारके भय से इतने से ही सन्तोष मानते हैं। आशा है कि पाठक-वाचक लोग अशुद्धियाँ दूर कर शुद्ध पाठ कैसा होना चाहीए, उसको समझ कर सुधार ले। खास पत्र-निर्देश नहि किया, क्यों कि अनेक पत्रोंमें अनेक वार अशुद्ध पाठ आया है। उल्लत्य, कर्तव्य - पालनके कारण, और भविष्य में ऐसी अशुद्धियाँ प्रचलित न रहे, यथायोग्य संशोधन कर लिया जाय ऐसे शुभ आशय से यह निवेदन हमे करना पडा है - इसमें अनुचित हुआ हो तो सम्पादक मण्डल, विद्वन्मण्डल, लेखक- मण्डल, और संशोधक सज्जनों हमे क्षमा करें। अभिनन्दनीय सूरिजी के सद्गुणोंको मैं वर्षोंसे सुन रहा था, जब उनकी प्रेरणाले 'प्राग्वाट इतिहास' तैयार हो रहा था, तब उसको पहिलेसे अवलोकन कर उचित सूचना करनेका कार्य मुझे सौंपा गया था; वहाँ तक सूरिजीसे मिलना नहि हुआ था। लेकिन दो वर्ष पहिले, श्रीराजेन्द्रसूरि स्मारक महोत्सवके प्रसंग पर राजगढ में मोहनखेडा तीर्थ में श्रीमतीन्द्रसूरिजीका साक्षात् दर्शन करनेका हमे सुयोग मिला था । सपरिवार सूरिजी के सौजन्य, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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